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________________ विषयानुक्रमणिका गाथा संख्या विषय २४५१-२४५४ सागारिक का द्रव्य निक्षेप। उसके प्रकार, स्वरूप और उससे होने वाले संबंधित प्रायश्चित्त। २४५५-२४६४ द्रव्य सागारिक से युक्त उपाश्रय में निवास करने वाले साधु-साध्वियों को होने वाली मनःस्थिति और उससे निष्पन्न दोष। २४६५ अब्रह्मचर्य का कारण है-रूप, औदारिक और दिव्य। मन-वचन-काय के आधार पर नौ नौ भेद। कुल अठारह प्रकार का अब्रह्म भावसागारिक। २४६६,२४६७ रूप अथवा रूपसहगत अब्रह्म भावसागारिक का स्वरूप। रूप और रूपसहगत का तात्पर्य। रूप के तीन प्रकार-दिव्य, मानुष्य और तैरश्च। पुनः एक-एक के तीन प्रकार। इन सबके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद से तीन प्रकार। २४६८,२४६९ दिव्य प्रतिमाओं के प्रकार। २४७०-२४८५ दिव्य प्रतिमायुक्त उपाश्रय में रहने से निर्ग्रन्थ- निर्ग्रन्थियों के लिए आने वाले प्रायश्चित्त के दो प्रकार। इनका विस्तार से वर्णन और इनसे निष्पन्न विविध प्रायश्चित्त। २४८६-२४९० यदि अप्रतिसेवी को भी प्रायश्चित्त मिले तो फिर अप्रायश्चित्ती कौन होगा? कोई कर्मबंधन से मुक्त नहीं होगा। यदि अपराध में लघुतर दंड और आज्ञाभंग में गुरुतर दंड, यह क्यों? शिष्य की जिज्ञासा। आचार्य द्वारा समाधान। आज्ञा के विषय में मौर्य दृष्टान्त। २४९१-२४९३ बहुश्रुत मुनि की भांति यदि कोई निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी दिव्य प्रतिमायुक्त उपाश्रय में रहे तो वहां नानात्व दोष होने का निर्देश। २४९४-२५०३ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के देव सन्निहित प्रतिमा वाले उपाश्रय में रहने से तीन कारणों-प्रलुब्ध, प्रत्यनीकता तथा भोगार्थी से लगने वाले दोष और उनसे निष्पन्न प्रायश्चित्त। २५०४,२५०५ देव सन्निहित प्रतिमाओं के प्रकार। २५०६-२५०८ सन्निहित देवियों के चार प्रकार तथा उनसे संबंधित चार दृष्टान्त। २५०९-२५१५ शिष्य की जिज्ञासा-प्राजापत्य परिगृहीत, कौटुंबिक परिगृहित और दंडिकपरिगृहीत प्रतिमाओं में कौन सी गुरुतर ? गुरु के द्वारा समाधान। २५१६-२५२६ मनुष्यणी के तीन प्रकार जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। प्रत्येक के तीन भेद-प्राजापत्य गाथा संख्या विषय परिगृहीत, कौटुम्बिक परिगृहीत और दंडिक परिगृहीत। उन-उन स्थान में रहने से निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थियों को लगने वाले स्थान निष्पन्न तथा प्रतिसेवना विषयक दोष और प्रायश्चित्त। २५२७-२५३३ मानुषी के चार विकल्प। उनके उदाहरण तथा उनसे संबंधित प्रायश्चित्त और दोष। २५३४-२५४३ प्राजापत्य, कौटुम्बिक और दंडिक आधिपत्य वाली तिर्यंच स्त्रियों के जघन्य, मध्यम आदि प्रकार। उन स्थानों में रहने से निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को आने वाले स्थान और प्रतिसेवना संबंधी दोष और प्रायश्चित्त। २५४४-२५४६ सुखविज्ञप्य-सुखमोच्य आदि तिर्यंच स्त्री के चार प्रकार तथा उनके उदाहरण। मनुष्य के साथ मैथुनसेवन का सिंहनी का दृष्टान्त। २५४७ निर्ग्रन्थियों के लिए भी द्रव्य, भाव सागारिक की नियमा। पुरुष प्रतिमा वाले यावत् पुरुष तिर्यंच स्थान में श्रमणियों को रहने का निषेध। वहां रहने से दोष तथा अनुराग के दृष्टान्त। २५४८-२५५० सागारिक उपाश्रय में रहने के अपवाद और उससे संबंधित यतनाएं। सूत्र २६-२९ २५५१ निर्ग्रन्थ-निर्गन्थी विषयक विभागशः सूत्र-कथन। २५५२-२५५५ (२५वें) सूत्र में कही बात यदि (२६-२९) सूत्रों में कही गई है तो फिर इन सूत्रों की रचना निरर्थक है? क्योंकि इन सूत्रों में भी वही प्रसंग है, शिष्य की जिज्ञासा। आचार्य का समाधान। २५५६-२५७७ सविकार पुरुष से संबंधित अथवा निर्विकार पुरुष से संबंधित उपाश्रय में रहने से लगने वाले दोष। कारणवश सागारिक से संबंधित उपाश्रय में रहना पड़े उससे संबंधित यतनाएं और अपवाद। २५७८-२५८२ श्रमणी संबंधी सागारिक सूत्र की व्याख्या निर्ग्रन्थसूत्रों की व्याख्या के सदृश। पडिबद्धसेज्जा-पदं सूत्र ३० २५८३ जिस उपाश्रय के नजदीक में गृहस्थ रहता हो उस प्रतिबद्धशय्या में निर्ग्रन्थों को रहने का निषेध । २५८४-२५८६ प्रतिबद्ध पद का निक्षेप। भाव प्रतिबद्ध के चार प्रकार। द्रव्य और भाव प्रतिबद्ध पद की चतुर्भंगी और उनसे संबंधित विधि-निषेध। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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