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________________ गाथा संख्या विषय २१६३-२१७२ पृथक् वसति में रहने वाली साध्वियों का परिहार किया जा सकता है,परन्तु गृहणियों का नहीं। क्योंकि उनसे ही भक्तपान, औषधि आदि की प्राप्ति होती है। मुनियों का संसर्गजा दोष से बचा नहीं जा सकता। आचार्य द्वारा विविध उदाहरणों से उसका प्रतिवाद। २१७३-२१८० एक वगड़ा-एक द्वार वाले ग्राम-नगर आदि में साथ रहने वाले श्रमण-श्रमणियों के विचारभूमी आदि में आते जाते, एक दूसरे से मिलने और देखने के निमित्त से होने वाले दोष तथा लोगों में उठने वाली तर्कणा से निष्पन्न प्रायश्चित्त। २१८१-२१९३ एक द्वार वाले ग्राम-नगर आदि में साथ में रहने वाले श्रमण-श्रमणियों के विविध प्रयोजनों से जाते या निर्गमन विषयक चतुभंगी तथा उसके आश्रित प्रायश्चित्त के पांच आदेशों का वर्णन। २१९४-२२०४ एक द्वार वाले गांव-नगर आदि में श्रमणियों के रहने पर यदि वहां श्रमण रहते हैं तो श्रमणियों के विचारभूमी-भिक्षाचर्या आदि के निमित्त से होने वाली परितापना तथा तद्विषयक भोगिक दृष्टांत और प्रायश्चित्त। २२०५-२२१७ एक द्वार वाले गांव-नगरादि में श्रमणियों के होने पर कुलस्थविरों द्वारा नगरद्वार पर स्थित आचार्य से वहां रहने का कारण पूछना। निष्कारण रहने पर प्रायश्चित्त और उस क्षेत्र से निष्कासन। कारणवश वहां ठहरे हुए हों तो यतनापूर्वक विचारभूमी, भिक्षाचर्या आदि की व्यवस्था। २२१८-२२३१ वास्तव्य और आगन्तुक साधु-साध्वियां यदि कारणवश एक ग्राम में रहें तो वहां कलह के प्रसंग संभावित। गणिनी, प्रवर्तिनी और गणधर द्वारा शान्ति के लिए प्रयत्न। परस्पर क्षमायाचना के बाद विशोधि। २२३२-२२३४ अनेक द्वार रूप एक वगड़ा में जो दोष लगते हैं उनके वर्णन के लिए द्वारगाथा। २२३५-२२४० वृत्ति द्वारा अंतरित स्थान में भी साधु-साध्वियों का एक साथ रहना निषिद्ध। परस्पर वार्ता, कुशलक्षेत्र आदि से संयमच्युत की संभावना और मोह की वृद्धि आदि दोष। २२४१-२२४४ साध्वियों के अभिमुख द्वार वाले उपाश्रय के पास साधुओं को रहने का निषेध क्यों? बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय २२४५-२२५७ ऊंचे, नीचे स्थान में साधु-साध्वियों के रहने से एक दूसरे को देखने का प्रसंग। उससे लगने वाले दोष तथा उनसे संबंधित विभिन्न प्रायश्चित्त तथा अनेक आदेश। २२५८-२२६३ कामवेग के दस प्रकार। तथा उनके वेगों का क्रमशः प्रायश्चित्त का निरूपण। २२६४-२२७१ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के अत्यधिक निकट रहने पर रात्री में धर्मकथा आदि करने की विधि। धर्मकथा सुनने पर अनुराग, संकेत आदि दोषों की संभावना। प्रवचन की मधुरता से श्रमणी द्वारा प्रशंसा। श्रमण-श्रमणी को आपस में देखने से प्रीति, रति, विश्वास, प्रणय आदि की उत्पत्ति। भग्नव्रत होने पर अवधावन करे तो आचार्य को प्रायश्चित्त। २२७२-२२७७ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के अशिव, दुर्भिक्ष आदि कारणों से अकस्मात् संयती क्षेत्र में आने पर निरुपहत वसति की मार्गणा करने का विधान। उसके अभाव में संयती क्षेत्र में यतनापूर्वक रहने की विधि। २२७८-२२८७ जिस गांव के अनेक वगड़ा और प्रवेश-निर्गमन द्वार एक हो वहां रहने वाले श्रमण-श्रमणियों के तीसरे भंग वाली अर्थात् आपात असंलोक वाली विचारभूमी भीतर न होने पर बहिर्गमन का प्रसंग। एक द्वार होने के कारण दोनों के आने-जाने और मिलने से लगने वाले दोष और तद्विषयक कुसुंभरक्तवस्त्र का दृष्टान्त। सूत्र ११ २२८८,२२८९ ग्राम-नगरादि में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के रहने के लिए भिक्षाभूमि, स्थंडिलभूमि, विहारभूमि आदि जहां पृथक्-पृथक् हो वहीं यतनापूर्वक रहने का विधान। २२९०-२२९४ निर्ग्रन्थों के लिए पार्श्वस्थ आदि संयतियां दोषकारी। वहां मुरुण्डदूत का दृष्टान्त। आवणगिहादिसु वासविधिनिसेध-पदं सूत्र १२ २२९५,२२९६ पृथग् वगडा और पृथक् द्वार वाले क्षेत्रों में रहने वाली साध्वियों को कौन से उपाश्रय कल्पनीय ? २२९७-२३०३ आपणगृह, रथ्यामुख, शृंगाटक, चतुष्क, चत्वर अंतरापण आदि पदों की व्याख्या तथा भिन्न भिन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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