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________________ ५० गाथा संख्या विषय १९९६ १२०० तीर्थंकर की रूप संपदा तथा संहनन आदि की देव, गणधर आदि के साथ तुलना । १२०१ १२०३ तीर्थंकर के सर्वोत्कृष्ट रूप प्राप्ति का कारण। सभी श्रोता प्राणियों के संशय की एक साथ व्युच्छित्ति करने का उपाय। क्रमपूर्व व्याकरण दोष के निवारण के लिए युगपद् व्याकरण का कथन तथा उसके गुण । १२०४ १२०६ तीर्थंकर की एक ही भाषा का भिन्न भिन्न भाषाओं में परिणमन कैसे ? श्रोता पर उसका प्रभाव कैसा ? १२०७-१२१० भगवान् के विहरण संबंधी तथा आगमन संबंधी सूचना देने वालों को चक्रवर्ती आदि के द्वारा प्रीतिदान तथा उसके गुण । १२११,१२१२ देवमाल्य बलि का विधान । १२१३, १२१४ बलि का कौनसे द्वार से प्रवेश भगवान् को अलि उपहृत करने का विधान । देवता आदि पौरजनों द्वारा बलि लेने की विधि | बलि लेने का लाभ | १२१५-१२१७ तीर्थंकर के धर्मदेशना करने का काल और गणधर के धर्मदेशना का काल । गणधर की धर्मदेशना का लाभ और गुण । १२१८-१२२० तीर्थंकर के समीप अध्ययन करने में व्याक्षेप और अर्थग्रहण की नियमा १२२१-१२२५ सूत्र के प्रकार सूत्र अर्थ की नस होने पर देशाटन का प्रयोजन क्यों? आचार्यपद के योग्य व्यक्ति को वैशदर्शन की नियमा १२२६-१२३१ देश दर्शन के विविध गुण और उनका विस्तार | १२३४ १२३२,१२३३ आचार्य की पर्युपासना से लाभ । भव्य आचार्य का देशदर्शन से लाभ | १२३५ १२४० अतिशय के प्रकार और देवदर्शन का महत्त्व | १२४१,१२४२ द्वार गाथा का वर्णन | १२४३-१२४९ वर्षावर्जविहारी, सत्पुरुष, विद्यापुरुष और निपुण व्यक्तियों के लक्षण | १२५०-१२५३ भावी आचार्य की श्लाघ्यता क्यों ? उपसंपदा की व्याख्या के तीन प्रकार तथा उपसंपदा किसको, कब और उसका निषेध कब ? १२५४-१२६२ आत्मतुला के चार प्रकार । परतुला के चार प्रकार | पुत्रवधू दृष्टान्त द्वारा प्रतीच्छकों को प्रतिबोध । Jain Education International बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय १२६३-१२६७ संविग्न के दो प्रकार आलोचना कब तथा आचार्य के द्वारा सामाचारी का कथन । १२६८,१२६९ प्रतिस्मारणा का स्वरूप । १२७०-१२७४ प्रमाद का दंड । प्रमादाचरण से उपरत होने पर गच्छ से बहिष्कार तथा विनीत शिष्यों द्वारा आचार्य के प्रति विनय का प्रयोग । १२७५-१२७९ प्रमादी साधुओं के प्रति स्मारणाकरण से क्या प्रयोजन ? शिष्यों को स्थिर करने के लिए राजा का दृष्टान्त और स्मारणा कब ? १२८० १२८२ जिनकल्प स्वीकार करने से पूर्व आचार्य की आत्महित के लिए विचारणा आवश्यक । १२८३, १२८४ अभ्युद्यत विहार के तीन प्रकार तथा अभ्युद्यतमरण के तीन प्रकार। पहले किसका स्वीकरण। १२८५ १२८८ गण का निक्षेप इत्वरिक क्यों? इसका समाधान तथा जिनकल्प धारण करने की अर्हता का वर्णन । १२८९ - १२९२ भावना से भावित आत्मा के गुण तथा भावना के प्रकार । १२९३-१३२७ संक्लिष्ट भावनाओं के प्रकार तथा व्याख्या और उनके फल | १३२८-१३५७ प्रशस्त भावनाओं के प्रकार तथा उनकी व्याख्या । १३५८-१३७७ जिनकल्पी बनने से पूर्व उसकी चर्चा, स्वीकरणविधि, नवीन आचार्य की स्थापना तथा उसे शिक्षा | श्रमण संघ से क्षमायाचना आदि । १३७८-१४१२ सामाचारी के प्रकार तथा जिनकल्पिक मुनि की कौन सी सामाचारी ? २७ द्वारों से जिनकल्पिक मुनि का विस्तार से वर्णन । १४१३-१४२४ जिनकल्पी मुनियों की स्थिति का १९ द्वारों से वर्णन | १४२५.१४४५ शुद्ध परिहारिक और यथालंदिक मुनियों की जीवनचर्या, स्वरूप और मर्यादा । १४४६ १४५९ गच्छवासी मुनियों के पांच प्रकार और उनमें प्रव्रज्या शिक्षापन आदि में जिनकल्प की तुल्यता। उनके बिहार के लिए समय और मर्यादा और विहार के लिए गण की अनुमति आवश्यक आदि विधियां १४६०-१४७० गण को आमंत्रित नहीं करने पर अथवा आमंत्रित करने पर नहीं आने पर प्रायश्चित्त विधान । भिन्नभिन्न दिशाओं में वैयावृत्यकर, बालमुनि वृद्ध www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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