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________________ पहला उद्देशक १८४९.पुरकम्मम्मि कयम्मी, जइ भण्णइ मा तुम इमा देउ। १८५४.दव्वेण य भावेण य, चउक्कभयणा भवे पुरेकम्मे। संकापदं व होज्जा, ललितासणिओ व सुव्वत्तं। सागरिय भावपरिणय, तइओ भावे य कम्मे य॥ पुरःकर्म किए जाने पर यदि साधु दात्री को कहे कि 'तुम १८५५.सुन्नो चउत्थ भंगो, मन्झिल्ला दोण्णि वी पडिक्कट्ठा। मत दो, यह देगी।' दात्री के मन में शंका हो सकती है। वह संपत्तीइ वि असती, गहणपरिणते पुरेकम्म। मुनि को कहती है-तुम स्पष्टरूप से ललिताशनिक हो, द्रव्य और भाव के आधार पर पुरःकर्म के चार विकल्प क्योंकि तुम अपनी इष्ट देने वाली को चाहते हो। हैं-(१) द्रव्यतः पुरःकर्म न भावतः। (२) भावतः पुरःकर्म, न १८५०.गंतूण पडिनियत्तो, सो वा अन्नो व से तयं देइ। द्रव्यतः। (३) द्रव्य और भाव दोनों से पुरःकर्म। (४) न अन्नस्स व दिग्जिहिई, परिहरियव्वं पयत्तेणं॥ द्रव्यतः और न भावतः पुरःकर्म। पुरःकर्म कर साधु को भिक्षा देने के लिए उद्युक्त दाता को सागारिक के भय से पुरःकर्म लेना और उसका प्रतिषिद्ध कर मुनि चला गया। दाता ने सोचा, मुनि प्रतिनिवृत्त परिष्ठापन कर देना, यह द्रव्यतः पुरःकर्म है। 'मैं पुरःकर्म होने पर मैं भिक्षा दूंगा। वह दाता अथवा अन्य व्यक्ति उस लूंगा'-इस भाव से परिणत होकर यदि पुरःकर्म नहीं भी द्रव्य की भिक्षा देता है तो वह भिक्षा लेना नहीं कल्पता। मिलता, फिर भी वह भावतः पुरःकर्म है। तीसरा विकल्प दाता सोचता है यह मुनि भिक्षा नहीं लेता तो मैं दूसरे मुनि भावतः पुरःकर्म लेना है। चौथा विकल्प शून्य है। मध्यवर्ती को दे दूंगा। दूसरे मुनि को भी उस भिक्षा का प्रयत्नपूर्वक दोनों भंग (दूसरा और तीसरा) प्रतिकुष्ट हैं, प्रतिषिन्द्र हैं। परिहार करना चाहिए। पुरःकर्म की प्राप्ति न होने पर भी, उसके ग्रहण में परिणत १८५१.पुरकम्मम्मि कयम्मी, मुनि के वह पुरःकर्म होता है। पडिसिद्धो जइ भणिज्ज अन्नस्स। १८५६.पुरकम्मम्मि कयम्मी जइ गिण्हइ जइ य तस्स तं होइ। दाहं ति पडिनियत्ते, एवं खु कम्मबंधो, चिट्ठइ लोए व बंभवहो। तस्स व अन्नस्स व न कप्पे॥ पुरःकर्म करने पर यदि ग्रहण करता है अथवा उसके पुरःकर्म ग्रहण करने का प्रतिषेध करने पर यदि दाता ग्रहण के भाव में परिणत होता है तो वह तीसरे भंग में आता कहता है-दूसरे मुनि को दूंगा। वह भिक्षा प्रतिनिवृत्त उस मुनि है। तब दायक और ग्राहक के कर्मबंध तटस्थ ही रहता है. को अथवा अन्य किसी मुनि को ग्रहण करना नहीं कल्पता। जैसे लौकिक व्यवहार में ब्राह्मण का वध।' १८५२.भिक्खयरस्सऽन्नस्स व, पुठ्वं दाऊण जइ दए तस्स। १८५७.संपत्तीइ वि असती, कम्मं संपत्तिओ वि य अकम्म। सो दाया तं वेलं, परिहरियव्वो पयत्तेणं॥ एवं खु पुरेकम्म, ठवणामित्तं तु चोएइ॥ पुरःकर्म कर साधु को देने से पूर्व अन्य भिक्षाचरों को द्वितीय भंग के अनुसार संप्राप्ति न होने पर भी साधु देकर मुनि को भिक्षा दे तो उस वेला का प्रयत्नपूर्वक परिहार के पुरःकर्म होता है। यदि संप्राप्ति होने पर भी पहले भंग करे, उस समय न ले। में पुरःकर्म नहीं होता तो मन में प्रतिष्ठित पुरःकर्म १८५३.अन्नस्स व दाहामी,अण्णस्स व संजयस्स न वि कप्पे। केवल स्थापनामात्र होता है। यह सारा कथन अपर व्यक्ति ___ अत्तट्ठिए व चरगाइणं च दाहं ति तो कप्पे॥ का है। यदि दाता यह संकल्प करे कि मैं यह भिक्षा दूसरे साधु १८५८.इंदेण बंभवज्झाा, कया उ भीओ अ तीए नासंतो। को दूंगा तो वह भिक्षा साधु को लेना नहीं कल्पता। वह यदि तो कुरुखेत्त पविट्ठो, सा वि बहि पडिच्छए तं तु॥ अपने लिए अथवा चरक आदि परिव्राजकों के लिए संकल्पित १८५९.निग्गय पुणो वि गिण्हे, कुरुखेत्तं एव संजमो अम्ह। करता है तो उस भिक्षा का ग्रहण कल्पता है। जाहे ततो नीइ जीवो, घेप्पइ तो कम्मबंधेणं॥ १. उडंक ऋषि की पत्नी रूपवती थी। इन्द्र उसमें आसक्त होकर उसके देवताओं ने उस ब्रह्मवध्या को चार भागों में विभक्त कर डाला-एक साथ समागम कर जाने लगा। ऋषि ने यह देखकर उसे शाप देते हुए विभाग स्त्रियों के ऋतुकाल में स्थित हो गया, दूसरा विभाग पानी में कहा-तुमने अगम्य कषिपत्नी के साथ समागम किया है, इसलिए कायिकी (मूत्र) का विसर्जन करने वाले के, तीसरा विभाग ब्राह्मण के तुम्हारे लिए ब्रह्मवध्या उपस्थित हुई है। इन्द्र भयभीत होकर कुरुक्षेत्र सुरापन में और चौथा विभाग गुरु पत्नी के साथ समागम करने वाले में चला गया। वह ब्रह्मवध्या भी कुरुक्षेत्र के आसपास घूमने लगी। में। वह ब्रह्मवध्या इन चारों में अवस्थित हो गई। इन्द्र देवलोक में इन्द्र उसके भय से बाहर नहीं निकलता था। इन्द्र के बिना इन्द्रलोक चला गया। इसी प्रकार जिसने पुरःकर्म किया उसका कर्मबंध दोष भी सूना हो गया। देवताओं ने इन्द्र को इन्द्रलोक में आने की प्रार्थना की। ब्रह्मवध्या की भांति व्यर्थ हो गया। इन्द्र ने कहा-मैं यहां से निकलूंगा तो मुझे ब्रह्मवध्या लग जाएगी। तब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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