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________________ ४८ ==बृहत्कल्पभाष्यम् है-तीसरे प्रहर में जब तक भिक्षा वेला नहीं होती तब तक (स्थापना यह हैबिना भिक्षा के लिए गए वह संज्ञाभूमी में जाए। भिक्षा के १ ९८६५४ारा१] लिए घूमकर भी जब तक चौथा प्रहर नहीं आता तब तक वह |१५|१५|३०|४२४२|३०|१५|५|१ संज्ञाभूमी में जाए। चिरकाल तक घूमते रहने के कारण चौथे दस को १ से, नौ को ५ से, आठ को १५ से, सात को प्रहर में भी वह संज्ञाभूमी में जा सकता है। ३० से, छह को ४२ से, पांच को ४२ से, चार को ३० से, ४४०. कप्पेऊणं पाए, एक्केकस्स उ दुवे पडिग्गहगे। तीन को १५ से, दो को ५ से और एक को १ से। इनकी कुल दाउं दो दो गच्छे, तिण्हव दवं च घेत्तूणं॥ जोड़ रूपाधिक के आधार पर १०२४ होती है।) पात्रों को पोंछकर एक-एक संघाटक को दो-दो पात्र दे ४४६. आया पवयण संजम, तिविहं उवघातियं मुणयव्वं । दे। दो-दो मुनि संज्ञाभूमी में जाएं। वे उतना पानी ले जाए कि आराम वच्च अगणी, घायादऽसुती य अन्नत्थ।। तीसरे मुनि के लिए भी काम आ जाए। औपघातिक स्थंडिल के तीन प्रकार जानने चाहिए.४४१. अजुयलिया अतुरिया, विगहारहिया वयंति पढमं तु। आत्मोपघाती, प्रवचनोपघाती और संयमोपघाती। निसिइत्तु डगलगहणं, आवडणं वच्चमासज्जा॥ आत्मोपघाती अर्थात् आराम (बगीचा, उद्यान आदि) में जो मुनि युगलरूप में स्थित नहीं हैं, जिनके कोई मलत्याग करने पर स्वयं का घात–पिट्टन आदि होता है। त्वरा नहीं है, जो विकथा न करते हुए स्थित हैं, वे प्रथम । प्रवचनोपघाती अर्थात् व!गृह में मलत्याग करने पर, वह अर्थात् अनापात असंलोक वाले स्थंडिल में जाएं। शौचार्थ स्थान अशुचि होने के कारण लोग प्रवचन का उड्डाह करते बैठकर डगलक ग्रहण कर, उन्हें भूमी पर पटके (जिससे हैं। संयोपघाती अर्थात् अग्निस्थान में व्युत्सर्ग करना। वहां कि उनमें प्रविष्ट जीव-जंतु निकल जाएं)। डगलकों का मलत्याग करने पर अग्नि का प्रारंभ करने वाले अन्यत्र प्रमाण मल से खरंडित पुत-निर्लेपन के आधार पर अग्निस्थान करते हैं। होता है। ४४७. विसम पलोट्टणि आया, इयरस्स पलोट्टणम्मि छक्काया। ४४२. आलोइऊण य दिसा, संडासगमेव संपमज्जित्ता। झुसिरम्मि विच्छुगादी, उभयक्कमणे तसादीया।। पेहिय पमज्जिएसु य, जयणाए थंडिले निसिरे॥ विषम स्थंडिल के ये दोष हैं-मुनि विषम स्थंडिल स्थान संज्ञाभूमी में दिशा का अवलोकन करे-आपात और में गिर सकता है। इससे आत्मविराधना होती है। मल-मूत्र के संलोक की जानकारी के लिए चारों ओर देखे। पश्चात् गिरने-बहने से छह काय की विराधना होती है। यह संयमसंडासक-मल-विसर्जन स्थान की प्रतिलेखना करे। फिर विराधना है। झुषिर स्थंडिल में व्युत्सर्ग करने पर बिच्छु, सर्प प्रेक्षित और प्रमार्जित भूमी-प्रदेश में यतनापूर्वक मलत्याग आदि से आत्मविराधना हो सकती है। मल-मूत्र-दोनों के करे। अतिक्रमण से त्रस-स्थावर प्राणियों की विराधना होती है। ४४३. अणावायमसंलोए, परस्स अणुवघातिए। यह संयमविराधना है। समे अज्झसिरे यावि, अचिरकालकयम्मि य॥ ४४८. जे जम्मि उउम्मि कया, पयावणादीहिं थंडिला ते उ। ४४४. विच्छिन्ने दूरमोगाढेऽनासन्ने बिलवज्जिए। होति इयरे चिरकया, वासावुत्थे य बारसगं। तसपाण-बीयरहिए, उच्चारादीणि वोसिरे॥ जो स्थंडिल जिस ऋतु में अग्नि, धूप आदि के योग से मुनि अनापात-असंलोक, दूसरों के लिए अनौपघातिक, किये जाते हैं वे उस ऋतु के अचिरकालकृत होते हैं। जैसे समतल, अशुषिर, अचिरकालकृत, विस्तीर्ण, दूरावगाढ, हेमन्त ऋतु में किया गया स्थंडिल हेमन्त ऋतु में ही अनासन्न, बिलवर्जित, सप्राणियों तथा बीजरहित इस अचिरकालकृत होता है। दूसरे ऋत्वन्तरव्यवहित स्थंडिल प्रकार के स्थंडिल में उच्चार-प्रस्रवण आदि का विसर्जन चिरकालकृत हैं, वे अस्थंडिल होते हैं। जहां सगोचरग्राम एक करे। वर्षारात्र तक उजड़ जाता है, वहां बारह वर्ष तक स्थंडिल ४४५, एग-दु-ती-चउ-पंचग-छग-सत्तग-अट्ठ-नवग-दसगेहिं।। जाना जाता है। उसके पश्चात् वह अस्थंडिल हो जाता है। संजोगा कायव्वा, भंगसहस्सं चउव्वीसं॥ ४४९. हत्थायाम चउरस, जहण्ण उक्कोस जोयणविछक्कं । एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ और चउरंगुलप्पमाणं, जहण्णयं दश-इनका संयोग करना चाहिए। उनके कुल भंग १०२४ जो स्थंडिल चारों दिशाओं में एक हाथ लंबा-चौड़ा है वह होते हैं। जघन्य विस्तीर्ण स्थंडिल है और जो बारह योजन लंबा-चौड़ा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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