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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय - केवलज्ञान का परिष्कृत लक्षण व्योमवती का वह उल्लेख योगसूत्र तथा उस के भाष्य के बाद का ही है। काम की किसी भी अच्छी दलील का प्रयोग जब एक बार किसी के द्वारा चर्चाक्षेत्र में आ जाता है तब फिर आगे वह सर्वसाधारण हो जाता है । प्रस्तुत युक्ति के बारे में भी यही हुआ जान पड़ता है । संभवतः सांख्य योग परंपराने उस युक्ति का आविष्कार किया फिर उसने न्याय-वैशेषिक तथा बौद्ध' परंपरा के ग्रन्थों में भी प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त किया और इसी तरह वह जैन परंपरा में भी प्रतिष्ठित हुई । ४४ जैन परंपरा के आगम, निर्युक्ति, भाष्य आदि प्राचीन अनेक ग्रन्थ सर्वज्ञत्व के वर्णन से भरे पड़े हैं, पर हमें उपर्युक्त ज्ञानतारतम्य वाली सर्वज्ञत्वसाधक युक्ति का सर्व प्रथम प्रयोग मल्लवादी की कृति में ही देखने को मिलता है । अभी यह कहना संभव नहीं कि मल्लवादी ने किस परंपरा से वह युक्ति अपनाई । पर इतना तो निश्चित है कि मल्लबादी के बाद के सभी दिगम्बर श्वेताम्बर तार्किकों ने इस युक्ति का उदारतासे उपयोग किया है । उपाध्यायजी ने भी ज्ञानबिन्दु में केवलज्ञान के अस्तित्व को सिद्ध करने के वास्ते एक मात्र इसी युक्ति का प्रयोग तथा पल्लवन किया है । (२) केवलज्ञान का परिष्कृत लक्षण [ ५७ ] प्राचीन आगम, नियुक्ति आदि ग्रन्थों में तथा पीछे के तार्किक ग्रन्थों में जहाँ कहीं केवल ज्ञान का स्वरूप जैन विद्वानों ने बतलाया है वहाँ स्थूल शब्दों में इतना ही कहा गया है कि जो आत्ममात्रसापेक्ष या बाह्यसाधननिरपेक्ष साक्षात्कार, सब पदार्थों को अर्थात् त्रैकालिक द्रव्य पर्यायों को विषय करता है वही केवल ज्ञान है । उपाध्यायजी प्रस्तुत ग्रन्थ में केवल ज्ञान का स्वरूप तो वही माना है पर उन्हों ने उस का निरूपण ऐसी नवीन शैली से किया है जो उन के पहले के किसी जैन भन्थ में नहीं देखी जाती । उपाध्यायजी ने नैयायिक उदयन तथा गंगेश आदि की परिष्कृत परिभाषा में केवल ज्ञान के स्वरूप का लक्षण सविस्तर स्पष्ट किया है । इस जगह इन के लक्षण से संबंध रखने वाले दो मुद्दों पर दार्शनिक तुलना करनी प्राप्त है, जिनमें पहला है साक्षात्कारत्व का और दूसरा है सर्वविषयकत्व का। इन दोनों मुद्दों पर मीमांसकभिन्न सभी दार्शनिकों का एकमत्य है । अगर उन के कथन में थोड़ा अन्तर है तो वह सिर्फ परंपराभेद का ही है । न्याय-वैशेषिक दर्शन जब 'सर्व' विषयक साक्षात्कार का वर्णन करता है तब वह 'सर्व' शब्द से अपनी परंपरा में प्रसिद्ध द्रव्य, गुण आदि सातों पदार्थों को संपूर्ण भाव से लेता है । सांख्य-योग जब 'सर्व' विषयक साक्षात्कार का चित्रण करता है तब वह अपनी परंपरा में प्रसिद्ध प्रकृति, पुरुष आदि २५ तत्त्वों के पूर्ण साक्षात्कार की बात कहता है । बौद्ध दर्शन 'सर्व' शब्द से अपनी परंपरा में प्रसिद्ध पञ्च स्कन्धों को संपूर्ण भाव से लेता है । वेदान्त दर्शन 'सर्व' शब्द से अपनी परंपरा में पारमार्थिक रूप से प्रसिद्ध एक मात्र पूर्ण ब्रह्म को ही लेता है । जैन दर्शन भी 'सर्व' शब्द से अपनी परंपरा में प्रसिद्ध सपर्याय षड् द्रव्यों को १ देखो, तत्त्वसंग्रह, पृ० ८२५ । का० ३१३४; तथा उसकी पत्रिका | Jain Education International २ देखो, नयचक्र, लिखित प्रति, पृ० १२३ अ । ३ देखो, तत्त्वसंप्रह, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002518
Book TitleGyanbindu Prakarana
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1942
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size13 MB
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