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________________ जैन दर्शन में धर्म - पुरुषार्थ की प्रमुखता जैन साधना-पद्धति में पुरुषार्थ > संयम में पराक्रम का उपदेश > पुरुषकार : जीव का लक्षण चारित्र धर्म : पुरुषार्थ का द्योतक परीषह जय में पुरुषार्थ वीर्य के रूप में पुरुषार्थ निरूपण सम्यक्त्व पराक्रम : उत्तराध्ययन का एक अध्ययन तप के रूप में पुरुषार्थ पराक्रम का एक रूप : अप्रमत्तता > संवर एवं निर्जरा में पुरुषार्थ की उपयोगिता > शरीरादि की प्राप्ति में पुरुषार्थ की कारणता > कर्म सिद्धान्त में पुरुषार्थ का स्थान > पुरुषार्थ से असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा > निष्कर्ष सप्तम अध्याय : जैन दर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय उत्थापनिका पंच कारण समवाय के प्रथम प्रणेता : सिद्धसेन दिवाकर 'पंच समवाय' शब्द का प्रथम प्रयोग पंच समवाय की प्रतिष्ठा > जैनदर्शन में काल की कारणता • सभी द्रव्यों के परिणमन में काल की कारणता • व्यवहार में काल की कारणता • धर्मास्तिकाय की भाँति 'काल' की स्वतंत्र द्रव्यता Jain Education International For Private & Personal Use Only Ivii ५०३ ५०४ ५०४ ५०६ ५०६ ५०७ ५०७ ५०८ ५०८ ५०९ ५१० ५१० ५१० ५१२ ५१४ ५४३-६०४ ५४३ ५४४ ५४५ ५४६ ५४७ ५४७ ५४८ ५४८ www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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