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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन 97 पर फल भी नष्ट हो जाता है । " वस्तुतः फल का अभिलाषी ही मूल को सिंचता है, किन्तु जिसे फल की आकांक्षा नहीं है वह मूल को नहीं सींचता है।" इसका तात्पर्य यह है कि जब तक फलाकांक्षा बनी रहती है तबतक कर्म और उनके विपाक की यह परंपरा सतत रूप से चलती रहती है। किन्तु जब कर्म से फलाकांक्षा निकल जाती है तो वे कर्म निष्फल होकर कर्म परंपरा को आगे बढ़ाने में असमर्थ हो जाते हैं, जिस प्रकार जड़ का छेदन कर देने से वृक्ष और उससे उत्पन्न होने वाली बीज और अंकुरों की परंपरा ही समाप्त हो जाती है। उसी प्रकार कर्म की मूल फलाकांक्षा को समाप्त कर देने पर कर्म प्रक्रिया भी स्वतः समाप्त हो जाती है। ऋषिभाषित में इस फलाकांक्षा के कारण भी विचार किया गया है और कहा गया है कि संसार में सभी प्राणियों के अनिर्वाण का कारण मोह है समस्त दुःख और जन्म-मरण की समस्त प्रक्रिया मोहमूलक है। " वस्तुतः मोह या अज्ञान के वशीभूत होकर जीव फलाकांक्षा से कर्म करता है और वे फलाकांक्षा से किये गये कर्म ही उसके संसार परिभ्रमण पर्व दुःख का कारण बनते हैं, अतः साधक के लिए यह आवश्यक है कि " वह कर्म को अर्थात् कर्म की फलाकांक्षा को समूल रूप से नष्ट कर दें। "" कर्म फल- विपाकः स्वकृत या परकृत व्यक्ति स्वकृत कर्मों के फल या विपाक को प्राप्त करता है अथवा परकृत कर्म के फल के विपाक को प्राप्त करता है यह प्रश्न कर्म सिद्धान्त के संदर्भ में अति महत्त्वपूर्ण है। ऋषिभाषित के दूसरे वज्जियपुत्त नामक अध्ययन में तथा इक्कीसवें पार्श्व नामक अध्ययन में इस प्रश्न पर विचार किया गया हैं। उसमें स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि जीव पुनः पुनः शुभाशुभ कर्मों को करके उन स्वकृत शुभाशुभ कर्मों के फल को भोक्ता है किन्तु परकृत अर्थात दूसरों के द्वारा किये गये कर्म के फल को नहीं भोगता है।" इसी प्रकार दूसरे वज्जियपुत्त नामक अध्याय में भी कहा गया है, कि व्यक्ति स्वकृत कर्म या कर्मों से अनुबद्ध एवं प्रतिबद्ध होकर चलता है । स्वकृत कर्मों के द्वारा ही पुन: इस संसार में आता है। स्वकृत कर्मों से सिंचित जन्म और मृत्यु आदि के दुःखों को पुनः पुनः प्राप्त करता है और संसार में परिभ्रमण करता है।" इस 5. 6. 7. 2. 9. मूलसेके फलुप्पत्ती, मूलाघाते हतं फलं । फलत्थी सिंचती मूलं, फलघाती ण सिंचती ।। 'इसिभासियाई' 2/6 मोहमूलमणिव्वाणं, संसारे सव्वदेहिणं । मोहमूलाणि दुक्खाणि, मोहमूलं च जम्मणं । दुःखमूलं च संसारे, अण्णाणेण समज्जितं। मिगारि व्व सरुप्पत्ती, हणे कम्माणि मूलतो ।। कष्पं पष्प फलविवाको जीवाणं, परिणामं पप्प फलविता को पोग्गलाण | 10. गच्छन्ति कहिं ....... से सकम्मसित्ते । Jain Education International For Private & Personal Use Only - 'इसिभासियाई' 2/6 -वही, 2/7 - वही, 2/8 -वही, 31/9 गद्यभाग (स) - वही, 2/3 www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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