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________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी यह सृष्टि वरुण के द्वारा निर्मित है, किन्तु सिरिगिरि स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि यह सृष्टि वरुण का विधान नहीं है।" इस प्रकार ऋषिभाषित में सृष्टि के किसी के द्वारा उत्पन्न किये जाने के संदर्भ में निषेधात्मक दृष्टिकोण ही उपलब्ध होता है। सृष्टि ब्रह्म की माया नहीं 78 १३ ऋषिभाषित यह भी नहीं मानता है कि यह सृष्टि ब्रह्म या ईश्वर की माया है, बल्कि वह सृष्टि के शाश्वत होने की अवधारणा की पुष्टि करता है । सिरिगिरि कहते हैं कि यह विश्व माया नहीं ।" ऐसा भी नहीं है कि यह जगत कभी नही था । अर्थात् जगत की सृष्टि किसी काल विशेष में नहीं हुई है। सृष्टि किसी काल विशेष में उत्पन्न हुई है-ऐसा मत उन्हें स्वीकार नहीं है। मात्र यही नहीं, वे इससे भी एक कदम बढ़कर कहते हैं कि ऐसा भी कभी नहीं होगा कि यह संसार नहीं रहेगा। वस्तुतः कुछ औपनिषदिक चिन्तक जगत को ब्रह्म या इन्द्र की माया के रूप में स्वीकार करते थे किन्तु ऋषिभाषित में किसी भी ऋषि द्वारा इस सिद्धांत का समर्थन नहीं देखा जाता है। यद्यपि परवर्ती काल में विशेष रूप में शंकर के अद्वेत वेदान्त में मायावाद सृष्टि का मूलभूत सिद्धांत बन गया था । १५ विश्व अनादि-अनन्त ऋषिभाषित में पार्श्व और श्रीगिरि नामक अध्यायों में कहा गया है कि यह विश्व शाश्वत है, अनादि और अनन्त है।" इस प्रकार ऋषिभाषित सृष्टि के अनादि और अनंत होने की अवधारणा को सवीकार करता है। इस तथ्य का समर्थन करते हुए पार्श्व नामक अध्याय में भी कहा गया है कि "यह लोक न तो कभी नष्ट होता है और न कभी उत्पन्न होता है, यह लोक कभी नहीं था, ऐसा नहीं है। यह लोक कभी नहीं है, ऐसा भी नहीं है, और यह लोक कभी नही रहेगा ऐसा भी नही है। यह लोक पहले था, वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगा। क्योंकि यह लोक ध्रुव है, 11. एत्थ अण्डे संत्तते, एत्थं लोए संभूते, एत्थे सासासे, इयं णे वरुण-विहाणे । 12. 15. 16. वि माया, ण कदाति णासि ण कदाति ण भवति ण कदाति ण भविस्सति या - इसि भासियाई, 37वाँ अध्ययन, गद्यभाग । 13. ण कदाति णासि ण कदाति ण भवति ण कदाति ण भविस्सति या 14. (अ) इन्द्रो मायाभिः पुरुषरूप ईयते - वृ. 2/5/19 (ब) माया तु प्रकृतिं विद्यात् मायिनं तु महेश्वरम् । " भारतीय दर्शन" - दत्त एवं चटर्जी (अ) ण कदाति णासि कदाति ण भवति ण कदाति ण भविस्सति य। (ब) " अणादीए अणिहणे परिणामिए लोकभावे " । Jain Education International - इसिभासियाई 37वाँ अध्ययन, गद्यभाग - वही -" भारतीय दर्शन" दत्त एवं चटर्जी, पृ. 230 - वही, 4 / 10, पृ. 230 - शंकर का अद्वैतवाद, पृ. 230-31 - इसि भासियाइ 37वां अध्ययन, गद्यभाग-3 -वही 31 वां अध्ययन, गद्यभग-4 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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