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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन रहित है वह साधक दुःखों से मुक्त होकर शीघ्र ही सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है । ७४ इस प्रकार ऋषिगिरि के अनुसार पंच महाव्रतों का पालन करना, क्रोधादि चार कषायों पर विजय प्राप्त करना तथा अपनी इन्द्रियों पर संयम रखना यही मोक्ष का मार्ग है।७५ इस प्रकार प्रस्तुत अध्याय में उन्होंने इस तथ्य पर भी बल दिया है कि सामान्य व्यक्ति देहासक्ति से युक्त होकर जीवन जीता है, जबकि पण्डित पुरुष अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही स्थितियों में समभाव पूर्वक जीवन जीता है। जो रागद्वेष से ऊपर उठ चुका है और जो अप्रतिज्ञ अर्थात अनाकांक्षी है, वही ब्राह्मण मोक्ष का अधिकारी बनता है । ७६ ३५. उद्दालक का कषायजय का साधना मार्ग उद्दालक ऋषि मोक्ष मार्ग का प्रतिपादन करते हुए सर्वप्रथम बन्धन के कारणों का विश्लेषण करते हैं। उनके अनुसार व्यक्ति क्रोध, मान, माया और लोभ के वशीभूत होकर वर्ज्यकर्म अर्थात् पाप कर्म को करता है और उनके पाप कर्मों के कारण चतुर्गति में परिभ्रमण करते हुए अपनी आत्मा को संक्लेषित करता है। अतः मोक्ष मार्ग के साधक को सर्वप्रथम इन चार कषायों का परित्याग करना चाहिये । ७७ किन्तु कषाय परित्याग के इस निर्देश के साथ-साथ उद्दालक मुनि जीवन की साधना की एक विशिष्ट पद्धति का भी निरूपण करते हैं। वे कहते हैं कि "तीन गुप्तियों से रक्षित, तीन दंडों से विरत, तीन शल्यों से रहित, चार विकथाओं से विरत, पांच समितियों से युक्त तथा शरीर धारण और योग साधना के लिए नो कोटि विशुद्ध उद्गम और उत्पादन दोष से रहित विभिन्न कुलों से गृहीत दूसरों के लिए निष्पादित अग्निरहित, धूम रहित, शस्त्र रहित और परिणत भोजन, शय्या और उपाधि को ग्रहण करता हूँ।' | ११७८ उनके इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि वे अपनी साधना पद्धति में उपरोक्त तथ्यों पर अधिक बल देते होंगे। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिये कि प्रस्तुत प्रतिपादन में पंच समिति, तीन गुप्ति तथा आहार चर्या की जिस विधि का प्रतिपादन किया गया है, वह आज भी जैन परंपरा यथावत रूप से प्रचलित है। अतः यह प्रश्न विशेष रूप से विचारणीय है कि क्या जैन परंपरा में आहार संबंधी उपर्युक्त नियम उपनियम उद्दालक की परंपरा से जैन परंपरा में आये हैं अथवा जैन आचार्यों 74. जेण लुब्भन्ति कामेहिं, छिण्णसोते अणासवे । सव्वदुक्खपहीणो उ, सिद्धे भवति णीरए । 75. वही, 34/5 76. वही, 34 / 1, 2 77. चउहिं ठाणेहिं.. 78. वही, 35 / गद्यभाग प्रारंभ Jain Education International 153 .तं जहा कोहेणं, माणेण, मायाए, , लोभणं । For Private & Personal Use Only - इसि भासियाई, 34/7 - वही, 35 / गद्यभाग-प्रारंभ www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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