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________________ ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन २७. वारत्तक ऋषि का ध्यान - स्वाध्याय का साधना मार्ग वारत्तक ऋषि के अनुसार जो आत्मार्थ के लिए प्रिय और अप्रिय को समभाव पूर्वक सहन करता है वह साधक धर्मजीवी होता है । ५३ किन्तु इस समत्व के उपदेश के साथ-साथ वे मुनि को स्नेह बंधन को छोड़कर अपने चित्त को ध्यान और स्वाध्याय में संलग्न रखने का उपदेश देते हैं। वे कहते हैं कि जो अपनी चेतना को विकारों से रहित करके ध्यान और स्वाध्याय में लगाता है वही सिद्धि को प्राप्त करता है । ५४ उनके उपर्युक्त कथन से यह सिद्ध होता है कि वे मुख्यतः ज्ञानमार्गी है, किन्तु अध्ययन के साथ-साथ ध्यान पर उन्होंने जो बल दिया है, उसके आधार पर हम यह कह सकते है कि वे ज्ञान और आचरण दोनों को ही मुक्ति का मार्ग मानते हैं। २८. आर्द्रक का संयम मार्ग आर्द्रक ऋषि के अनुसार जो काम भोगों में गृद्ध होकर पाप कर्म करते हैं वे चतुर्गति रूप महाभयंकर संसार में भटकते हैं । ५५ इसके विपरीत जो काम से विमुक्त हो गए हैं वे शुद्ध आत्माएँ संसार समुद्र को पार कर जाती है। उनका कथन है कि जो व्यक्ति अल्प समय के लिए भी शुभ क्रिया करता है, वह उसको विपुल फल प्राप्त करता है। अतः जो मोक्ष के लिए पुरुषार्थ करते हैं वे तो असीम फल को प्राप्त करेंगे ही। १७ इस आधार पर हम कह सकते है। कि वे संयम मार्ग पर अधिक बल देते हैं। अपने उपदेशों में उनका समस्त बल वासना से ऊपर उठने के लिए हैं। वे स्पष्टरूप से यह कहते हैं कि "मनुष्य काम वासना के अधीन होकर ही हिंसा, चोरी आदि करते हैं तथा अपनी सम्पत्ति और अपने ज्ञान-विज्ञान का विनाश करते हैं।' ५८ अतः वासना जय ही उनके साधना मार्ग का प्रमुख तत्त्व है। २९. वर्धमान का पाप-वारण का मार्ग वर्धमान ऋषि के अनुसार समस्त पदार्थों से विरत, दान्त, समस्त पाप कर्मों का निवारण करने वाला सभी दुःखों का अंत कर शीघ्र ही सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है।५९ इस प्रकार वर्धमान ऋषि के अनुसार हिंसा परिग्रह आदि पाप कर्मों से 53. इसिभासियाई, 2717 54. वही, 27/2 55. वही, 28/19 56. वही, 28/18 57. वही, 28/24 58. वही, 28/16 59. सवत्थ विरये दन्ते, सव्ववारीहिं वारिए । सव्वदुक्खप्पहीणे य, सिद्धे भवति णीरये । 149 Jain Education International For Private & Personal Use Only - वहीं, 29/19 www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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