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________________ 102 डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी होता है और कामना सहित तप करता है वह कामना सहित मृत्यु को प्राप्त होकर नर्क को प्राप्त करता हैं।२६ इसका तात्पर्य यह है कि जो सकाम भाव से व्रत तपादि भी करता है वह मुक्ति का अधिकारी नहीं बन पाता। मुक्ति का अधिकारी तो वही होता है जो निष्काम भाव से प्रव्रजित होता है और निष्काम भाव से तप करता है। अंत में वह अपनी उस निष्कामता के कारण सिद्धि या मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार ऋषिभाषित के अनुसार कामनायुक्त कर्म बंधन कारक है और निष्काम कर्म मुक्ति का मार्ग है। यहाँ हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में वर्णित बाहुक का यह दृष्टिकोण प्रकारान्तर से गीता के अनासक्ति योग का ही विवेचन करता है। शुभाशुभ का अतिक्रमण यद्यपि ऋषिभाषित कमों का शुभ और अशुभ के रूप में वर्गीकरण करता है, किन्तु ऋषिभाषित में वर्णित साधना का मुख्य लक्ष्य तो शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्मों का अतिक्रमण करना है। ऋषिभाषित के महाकाश्यप नामक नवें अध्याय में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि पूर्वकृत पुण्य-पाप ही संसार परंपरा के मल हैं। पुण्य और पाप का निरोध करने के लिए ही साधक सम्यक् प्रकार से प्रव्रजित हो।७ इस गाथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऋषिभाषित पुण्य और पाप दोनों को ही बंधन मानता है। उसमें कहा गया है कि स्वकृत पुण्य और पाप से ही प्राणी संसार परंपरा को प्राप्त होता है और इसलिए उसे संवर और निर्जरा के माध्यम से पुण्य और पाप का विनाश करना चाहिये।२८ हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि भारतीय ऋषियों का चिंतन मुख्यतया अध्यात्मपरक रहा है और इसलिए वे सामान्यतया पुण्य और पाप दोनों के अतिक्रमण की बात करते हैं। उनकी दृष्टि में सांसारिक बंधन के लिए पाप के समान पुण्य भी बंधन का ही काम करता है। जैन परंपरा में आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में पुण्य 26. सकामए पव्वइए, सकामए चरते तवं सकामए कालगते णरगे पत्ते, सकामए चरते तवं, सकामए कालभते सिद्धिं पत्ते सकामए,..... -'इसिभासियाई', 14/8 गद्यभाग 27. संसारसंतईमूलं, पुण्णं पावं पुरेकडं। पुण्ण पावनिरोहाय, सम्म सपरिव्वए।। -वही, 9/5 28. पुण्णपावस्स आयाणे, परिभोगे यावि देहिणं। संतईभोगपाउग्गं, पुरुणं पावं मयं कडं। संवरो जिज्जरा चेव, पुण्णपाव विणासण। संवरं निज्जरं चेव, सव्वहा सम्ममायरे।। -इसिभासियाइ,9/6,7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002508
Book TitleRishibhashit ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramodkumari Sadhvi
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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