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________________ 50 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री प्रार्थयते सुखानि जीवः, रसगृद्ध नैव करोति विपुलं तपः । सः तन्तुभिः बिना पटकं मृगयते अभिलाषमात्रेण || 80 || संसारी प्राणी रस आदि में आसक्त बनकर वैषयिक सुख की कामना करते हुए विपुल - तप साधना नहीं करते हैं। उनकी यह इच्छा ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार तंतुओं के बिना कोई कपड़े की उपलब्धि की इच्छा करता है । कम्माइं भवंतरसं - चियाइं अइकक्खडाइं वि खणेण । डज्झति सचिण्णेणं, तवेण जलणेण व वणाई ।। 81 ।। कर्माणि भवान्तरसंचितानि अति - कर्कषाण्यपि क्षणेन । दह्यन्ते सुचीर्णेन तपसा ज्वलेन इव बनानि ।। 81 ।। अनेक पूर्व-भवों में संचित किये गये अत्यन्त क्रूर कर्मों को भी सम्यक् रुप से की गई तपस्या द्वारा उसी प्रकार भस्म किया जा सकता है, जिस प्रकार अग्नि सम्पूर्ण वन को जला देती हैं। होऊण विसमसीला, बहुजीवखयंकरा वि कूरा वि । निम्मलतवाणुभावा, सिज्झति दढप्पहारिव्व ।। 82 ।। भूत्वा विषमशीला, बहुजीव क्षयं - क्रूराऽपि । निर्मलतपानुभावात्, सिध्यन्ति दृढप्रहारीव ।। 82 ।। दुराचारी, हिंसक और क्रूर कर्मों को करने वाले व्यक्ति भी निर्मल तप के प्रभाव से सिद्धि को प्राप्त हो सकते हैं। संघगुरुपच्चणीए, तवोणुभावेण सासिउं बहुसो । विण्डुकुमारुव्व मुणी, तित्थस्स पहावया जाया ।। 83 ।। संघगुरू प्रत्यनीकान् तपोऽनुभावेन शासितुं बहुशः । विष्णुकुमार इव मुनिः, तीर्थस्य प्रभावकाः जाताः ।। 83 ।। संघ एवं गुरु का अवर्णवाद करने वाले व्यक्ति भी तपस्या द्वारा शासित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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