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________________ 28 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री कल्याणकोटिजननी, दुरन्तदुरितारि-वर्ग निष्ठापिनी । संसारजलधितरणी, एकैव भवति जीवदया ।। 7 ।। क्योंकि अहिंसा करोड़ों कल्याणकारी कार्यों की जननी है। वह जीव के द्वारा चिरकाल से संचित पाप समूह को नष्ट करने वाली है तथा संसार समुद्र से पार जाने के लिये नौका के समान है। इस प्रकार जीव-दया ही एक मात्र श्रेष्ठ धर्म है । विउलं रज्जं रोगेहिं, वज्जियं रूवमाउयं दीहं । अन्नंपि तं न सोक्खं जं जीवदयाइ न हु सज्झं ।। 8 ।। विपुलं राज्यं रोगैः वर्जितं आयुष्यं दीर्घम् । अन्यदपि तद् न सौख्यं यद् जीवदयायाः न खलु साध्यं ।। 8 ।। इस जीवन में विपुल राज्य सम्पदा, स्वस्थ शरीर, शारीरिक सौन्दर्य, दीर्घ आयुष्य की प्राप्ति भी अहिंसा से ही साध्य है । इसी प्रकार परलोक में इन्द्र पद एवं मोक्ष सुख भी अहिंसा से ही संभव है । देविंदचक्कवट्टित्तणाइ भुत्तूण सिवसुहमणतं । पत्ता अनंतसत्ता, अभयं दाऊण जीवाणं ।। 9 ।। देवेन्द्र चक्रवर्तित्वानि भुक्त्वा शिवसुखमनन्तं । प्राप्ता अनन्तसत्वाः, अभयं दत्वा जीवानां ।। 9 ।। समस्त जीवों को अभयदान देकर तथा इन्द्र एवं चक्रवर्ती पद भोगकर अनन्त जीवों ने मोक्ष सुख को प्राप्त किया है । तो अत्तणो हिएसी, अभयं जीवाण देज्ज निच्चपि । जह वज्जाउहजम्मे, दिण्णं सिरिसंतिनाहेण । । 10 ।। ततः आत्मनः हितैषी, अभयं जीवानां दद्याः नित्यमपि । यथा वज्रायुधजन्मनि दत्तं श्रीशान्तिनाथेन ।। 10 ।। आत्म कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को सदैव ही जीवों को अभयदान देना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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