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________________ समये निर्गुणेष्वपि, भणिता मध्यस्थभावता चैव । . परदोषग्रहणं पुनः भणितं अन्यैः अपि विरूद्धम् ।। 458 ।। सिद्धान्त ग्रन्थों में कहा गया है कि दुर्जनों के विषय में माध्यस्थ भाव (उदासीनता) ही उचित है। दूसरों के दोषों को ग्रहण करना अन्य दर्शनियों के द्वारा भी निन्दनीय माना गया है। उपदेश पुष्पमाला / 169 लोओ परस्स दोसे, हत्थाहत्थिं गुणे य गिण्हंतो । अप्पाणमप्पणो च्चिय, कुणइ सदोसं च सगुणं च ।। 459 ।। लोकः परस्य दोषान्, साक्षात् स्वयमेव गुणान् च गृण्हन् । आत्मानं आत्मना एव, करोति सदोषं च सगुणं च ।। 459 || व्यक्ति दूसरों के गुणों एवं दोषों को क्रमशः ग्रहण करता हुआ स्वयं ही अपने आपको गुण युक्त या दोष युक्त बनाता है। अतः दूसरों के गुणों को ही ग्रहण करना चाहिये, दोषों को कभी नहीं । भूरिगुणा विरलच्चिय, एक्कगुणो वि हु जणो न सव्वत्थ । निद्दोसाणा वि भद्दं, पसंसिमो थेवदोसे वि ।। 460 ।। भूरिगुणाः विरलाः एव, एक गुणः अपि खलु जनो न सर्वत्र । निर्दोषानां अपि भद्रं, प्रशंसामः स्तोकदोषऽपि ।। 460 | 1 प्रचुर गुण वाले व्यक्ति अत्यन्त ही विरल होते हैं । ज्ञानादि गुण से परिपुष्ट मात्र एक गुण के धारक व्यक्ति सभी जगह उपलब्ध नहीं होते हैं। निर्दोष व्यक्ति प्रशंसनीय है ही, किन्तु अल्पदोष और अधिक गुण वाले व्यक्ति भी प्रशंसनीय है । (13) धर्मस्थिरता द्वारम् परदोसकहा न भवइ, विणापओसेण सो य भवहेऊ । खवओ कुंत्तलदेवी, सूरी य इहं उदाहरणा ।। 461 ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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