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________________ 164 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री रोयंति रुयावंति य, अलियं जंपंति पत्तियाबंति । कवडेण य खंति विंस, महिलाओ न जंति सब्भावं ।। 443 ।। रूदन्ति रोदयन्ति च अलीकं जल्पन्ति प्रत्याययन्ति । कपटेन च स्वादन्ति विषं महिलाः, न यान्ति सद्भावम् ।। 443 ।। ये स्त्रियाँ रोती है, अन्यों को रूलाती भी है, असत्य बोलती है तथा कपट पूर्वक विष भी खा लेने का नाटक भी करती है। इस प्रकार के स्वभाव वाली ये महिलायें कभी भी सहजता ( सरलता) को प्राप्त नहीं कर पाती हैं। परिहरसु तओ तासिं, दिट्ठि दिट्ठिविस्स व अहिस्स । जं रमणिनयणबाणा, चरित्तपाणे विणासंति ।। 444 ।। परिहर ततः तासां, दृष्टिं दृष्टिविषस्य इव अहेः । यद् रमणीनेत्रवाणाः, चारित्रप्राणान् विनाशयन्ति ।। 444 ।। इसीलिये दृष्टि विष सर्प अर्थात् विष पूर्ण दृष्टि वाले सर्प के समान स्त्रियों की दृष्टि का त्याग कर देना चाहिये, क्योंकि रमणीय स्त्रियों के नेत्र रूपी बाण मनुष्य (साधु) के चरित्र रूपी प्राण का विनाश कर देते हैं । जइ वि परिचत्तसंगा, तवतणुअंगो तहावि परिवडइ । महिलासंसग्गीए, पवसियभवणूसियमुणिव्व ।। 445 ।। यद्यपि परित्यक्त-सङ्गा, तपः तन्वङ्गः तथापि परिपतति । महिलासंसर्गेण प्रोषित - भवनोषित मुनि इव ।। 445 ।। स्त्रियों के संसर्ग का त्याग करने वाले और तपस्या द्वारा शरीर को कृश करने वाले मुनि भी स्त्री का सान्निध्य पाकर पथ से उसी प्रकार भ्रष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार विदेश गये हुए पति के घर पर न रहने पर, उस भवन में अल्प समय के लिये विश्राम हेतु ठहरे हुए कोई मुनि अपने पथ से भ्रष्ट हो गये थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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