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________________ 128 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री जणणीए अनिसिद्धो, निहओ तिलहारओ पसंगेणं। जण्णी वि थणच्छेयं, पत्ता अनिवारयंती उ।। 334 || इय अनिवारियदोसा, सीसा संसारसागरमुविंति। विणियत्तपसंगा उण, कुणंति संसारवुच्छेयं ।। 335 ।। जनन्या अनिषिद्धः, निहतः तिलहार क:-प्रसङ्गेन। जननी अपि स्तनच्छेदं, प्राप्ता अनिवारयन्ती तु ।। 334।। इति अनिवारित-दोषाः, शिष्याः संसार सागरं आप्नुवन्ति । विनिकृत-प्रसङ्गाः पुनः, कुर्वन्ति संसाररोच्छेदम् ।। 335।। जिस प्रकार अपनी जननी द्वारा चौर्य कर्म के हेतु न रोके जाने वाला तिलहारक मारा गया एवं उसे न रोकने वाली जननी (माता) को स्तनच्छेद करवाना पड़ा। उसी प्रकार शिष्यों के दोषों का निवारण न करने पर वे अविनीत शिष्य पुनः संसार सागर को प्राप्त होते हैं, किन्तु विनीत शिष्य दोषों का निवारण करने से यथा समय संसार का उच्छेद करते हैं। जहिं नत्थि सारणवारणा, व चोयणपडिचोयणा व गच्छम्मि। सो य अगच्छो गच्छो, संजमकामीहिं मुत्तव्यो ।। 336 ।। यत्र नास्ति सारणा वारणा, च चोदनाप्रति चोदना च गच्छे। सः च अगच्छो गच्छ: संयम-कामिभिः मोक्तव्यः।। 336 || जिस गच्छ में सारणा (सार-संभाल) वारणा (गलत मार्ग पर जाते हुए को रोकता) नहीं है एवं प्रेरणा तथा प्रति प्रेरणा भी नहीं है। वह गच्छ अगच्छ ही है। अतः संयम मार्ग का साधक ऐसे गच्छ का त्याग कर दे। अणमिओगेण तम्हा, अभिओगेण व विणीयइयरे य। जच्चियरतुरंगा इव, वारेअव्वा अकज्जेसु ।। 337 ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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