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________________ 10 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री सुत्तनिपात को ले तो वे भी उपदेशपरक ग्रन्थ ही हैं। चाहे बाईबिल हो या कुरान, कोई भी धर्म ग्रन्थ ऐसा नहीं है जिसमें नैतिक जीवन के लिये उपदेश न हो। जैन धर्म में भी प्राचीनकाल से ही आचारांग, उत्तराध्ययन आदि ऐसे ग्रन्थ रहे है, जो मुख्य रूप से उपदेशपरक है। संक्षेप में कहे तो जैन धर्म में उपदेश परक ग्रन्थों की एक सुदीर्घ परम्परा रही है। इन उपदेशपरक ग्रन्थों मे भी जहाँ तक प्राचीन ग्रन्थों का प्रश्न है उनमें नैतिक आचरण या सदाचरण सम्बन्धी उपदेश ही मिलते है, किन्तु परवर्ती काल में इन सदाचार सम्बन्धी उपदेशों के लिये कथात्मक विवेचन भी उपलब्ध होते है। दूसरे शब्दों मे इन ग्रन्थों में कथाओं के माध्यम से नैतिक जीवन जीने की प्रेरणा दी गयी है। कथा एक ऐसी विधा है, जो प्राणियों के मन पर अधिक प्रभाव डालती है। यही कारण रहा है कि उपदेशात्मक ग्रन्थों में कथा के तत्त्व भी समाहित होते गये। जैन आगम साहित्य में भी प्राचीनकाल से ही उपदेश और कथा- दोनों का एक संमिश्रित रूप ही रहा है। ज्ञाताधर्म कथा में कथाओं के माध्यम से सदाचार सम्बन्धी निर्देश दिये गये हैं। जैन धर्म में प्राचीन काल से ही उपदेशपरक ग्रन्थों के दोनों रूप मिलते है, एक वह रूप जिसमें मात्र उपदेश होते हैं, दूसरा वह रूप जिसमें मात्र कथायें होती हैं। आगम में भी यदि हम इस दृष्टि से विचार करे तो जहाँ आचारांग, सूत्रकृतांग आदि ग्रन्थ मुख्यतः उपदेशपरक है, जबकि उपासकदशा, अन्तकृतदशा आदि कुछ ग्रन्थ मुख्यतः कथापरक है। ज्ञाताधर्मकथा में हमें एक मिश्रित रूप मिलता है इसमें कथा भाग मुख्य है, जबकि उपदेश भाग अति संक्षिप्त है। उत्तराध्ययन में समग्र रूप से देखे तो उपदेश भाग अधिक है और कथा भाग कम है। आगम युग के पश्चात् नियुक्ति और भाष्य काल में उपदेश या आचार प्रधान ग्रन्थों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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