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________________ प्रमाणनिरूपण ] प्रस्तावना इस स्व शक्ति को न मानकर ज्ञान को साकार मानने पर भी यह प्रश्न किया जा सकता है कि 'घटज्ञान घट के ही आकार क्यों हुआ पट के आकार क्यों नहीं हुआ ?' तदुत्पत्ति से तो आकारनियम नहीं किया जा सकता; क्योंकि जिस तरह घटज्ञान घट से उत्पन्न हुआ है उसी तरह इन्द्रिय, आलोक आदि पदार्थों से भी तो उत्पन्न हुआ है, अतः उनके आकार को भी उसे ग्रहण करना चाहिए। ज्ञान विषय के आकार को यदि एकदेश से ग्रहण करता है; तब तो ज्ञान सांश हो जायगा। यदि सर्वदेश से; तो ज्ञान अर्थ की तरह जड़ हो जायगा । समानकालीन पदार्थ किसी तरह अपना आकार ज्ञान में समर्पित कर सकते हैं पर अतीत और अनागत पदार्थों के जाननेवाले स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, अनुमानादि ज्ञान कैसे उन अविद्यमान पदार्थों के आकार हो सकते हैं ? हाँ,शक्तिप्रतिनियम मानने से अतीतादि पदार्थों का ज्ञान भली भांति हो सकता है । ज्ञान का अमुक अर्थ को विषय करना ही अन्य पदार्थ से व्यावृत्त होना है। अतः ज्ञान को निराकार मानना ही ठीक है । अमूर्त ज्ञान में मूर्त अर्थ का प्रतिबिम्ब भी कैसे आ सकता है ? सौत्रान्तिक को ज्ञान के साकार होने का 'ज्ञान में अर्थ का प्रतिबिम्ब पड़ता है।' यह अर्थ इष्ट था या नहीं यह तो विचारणीय है । पर विज्ञानवादी बौद्धों ने उसका खंडन यही अर्थ मानकर किया है और उसीका प्रतिबिम्ब अकलंककृत खंडन में है। इस तरह अकलंक ने स्वार्थव्यवसायात्मक, अनधिगतार्थग्राहि, अविसंवादि ज्ञान को प्रमाण कहा है । इस लक्षण के अनधिगतार्थग्राहित्व विशेषण के सिवाय बाकी अंश सभी जैन तार्किकों ने अपनाए हैं। अनधिगतार्थग्राहित्व की परम्परा माणिक्यनन्दि तक ही चली। आ० हेमचन्द्र ने स्वनिर्णय को भी प्रमाण के व्यावर्त्तक लक्षण में नहीं रखा; क्योंकि स्वनिर्णय तो ज्ञानसामान्य का धर्म है न कि प्रमाणात्मक विशेषज्ञान का। अकलंकदेव ने जहाँ अज्ञानात्मक सन्निकर्षादि की प्रमाणता का व्यवच्छेद प्रमितिक्रिया में अव्यवहित करण न होने के कारण किया है, वहाँ ज्ञानात्मक संशय और विपर्यय का विसंवादी होने से तथा निर्विकल्पज्ञान का संव्यवहारानुपयोगी होने के कारण निरास किया है । इसी संव्यवहारानुपयोगी पद से सुषुप्त चैतन्य के समान निर्विकल्पक-दर्शन भी प्रमाणकोटि से बहिर्भूत है इसकी सूचना मिलती है। प्रमाण के भेद-तत्त्वार्थसूत्र के 'तत्प्रमाणे' इस सूत्र को लक्ष्य में रखकर ही अकलंक ने प्रमाण के दो मूल भेद किए हैं। यद्यपि उन्हें प्रत्यक्ष तथा परोक्ष के कई अवान्तर भेद मानना पड़े हैं । इसीलिए उनने 'प्रमाणे इति संग्रहः' पद देकर उस भेद के आधारभूत सूत्र की सूचना दी है । वे दो भेद हैं-एक प्रत्यक्ष, दूसरा परोक्ष । तत्त्वार्थसूत्र में मति (इन्द्रियान्द्रियप्रत्यक्ष, स्मृति, संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (तक), अभिनिबोध (अनुमान) इन ज्ञानों को मति से अनर्थान्तर अर्थात् मतिज्ञानरूप बताया है। मतिज्ञान का परोक्षत्व भी वहीं स्वीकृत है । अतः उक्तज्ञान जिनमें इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्ष भी शामिल है आग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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