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________________ कर्णकगोमि-अकलङ्क ] २६ है' उनका ऐसा मानना प्रमाणशून्य है । इस पंक्ति से कलंक के द्वारा प्रज्ञाकर के. अतीतकारणवाद के ऊपर किए गए आक्षेप की बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है । २ - न्यायविनिश्चय ( का० ४७ ) में कलंकदेव ने प्रज्ञाकर के स्वप्नान्तिक शरीर का अन्तःशरीर शब्द से उल्लेख करके पूर्वपक्ष किया है । सिद्धिविनिश्चय ( टीका पृ० १३८ B. ) में भी अकलंक ने स्वप्नान्तिक शरीर पर आक्रमण किया है । ३- कलंकदेव प्रज्ञाकर की तरह सर्वज्ञता के समर्थन में न्यायविनिश्चय ( कारि० ४०७ ) में खम का दृष्टान्त देते हैं । तथा प्रमाणसंग्रह (पृ० ९९ ) में तो स्पष्ट ही सत्यखमज्ञान का ही उदाहरण उपस्थित करते हैं । यथा - "स्वयंप्रभुरलङ्घनार्हः खार्थालोकपरिस्फुटमवभासते सत्यस्वमवत् ।” ४ - जिस प्रकार प्रज्ञाकरगुप्त ने पीतशंखादिज्ञान को संस्थानमात्र अंश में प्रमाण तथा इतरांश में प्रमाण कहा है। उसी तरह अकलंक भी लघीयस्त्रय तथा अष्टशती में द्विचन्द्रज्ञान को चन्द्रांश में प्रमाण तथा द्वित्वांश में अप्रमाण कहते हैं । दोनों ग्रन्थों के अवतरण के लिए देखो - लघी० टि० पृ० १४० पं० २० । अष्टशती में तो कलंकदेव प्रज्ञाकर गुप्त की संस्थानमात्र में अनुमान मानने की बात पर आक्षेप करते हैं । यथा“नापि लैङ्गिकं लिंगलिंगिसम्बन्धाप्रतिपत्तेः अन्यथा दृष्टान्तेतरयोरेकत्वात् किं केन कृतं स्यात् ।" [ अष्टश० अष्टसह० पृ० २७७ ] इसके अतिरिक्त हम कुछ ऐसे वाक्य उपस्थित करते हैं जिससे प्रज्ञाकर और अकलंक के ग्रन्थों की शाब्दिक और आर्थिक तुलना में बहुत मदद मिलेगी । “एकमेवेदं सविद्रूपं हर्षविषादाद्यनेकाकारविवर्त्तं पश्यामः तत्र यथेष्टं संज्ञाः क्रियन्ताम् " [ वार्तिकालंकार ] “हर्षविषादाद्यनेकाकारविवर्त्तज्ञानवृत्तेः प्रकृतेरपरां चैतन्यवृत्तिं कः प्रेक्षावान् प्रतिजानीते ।" [ सिद्धिवि० टी० पृ० ५२६ B. ] शेष लिए देखो - लघी० टि० पृ० १३५ पं० ३१, न्यायवि० टि० पृ० १५६ पं० ११, पृ० १६२ पं० १३, पृ० १६५ पं० २० । प्रज्ञाकरगुप्त ने प्रमाणवार्तिक की टीका का नाम प्रमाणवार्तिकालंकार रखा है । इसीलिए उत्तरकाल में इनकी प्रसिद्धि 'अलङ्कारकार' के रूप में भी रही है । कलंकदेव का 'तत्त्वार्थराजवार्तिकालंकार' या 'तत्त्वार्थवार्तिकव्याख्यानालंकार' नाम भी वातिकालंकार के नामप्रभाव से अछूता नहीं मालूम होता । इस तरह उपर्युक्त दलीलों के आधार से कहा जा सकता है कि कलंकदेव ने धर्मकीर्ति की तरह उनके टीकाकार शिष्य प्रज्ञाकरगुप्त को देखा ही नहीं था किन्तु उनकी समालोचना भी डट कर की है । कर्णकगोमि और अकलंक - धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक के प्रथम स्वार्थानुमान परिच्छेद पर ही वृत्ति बनाई थी । इस वृत्ति की कर्णकगोमिरचित टीका के प्रूफ हमारे सामने हैं । कर्णकगोमि के समय का बिलकुल ठीक निश्चय न होने पर भी इतना तो Jain Education International प्रस्तावना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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