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________________ १० अकलङ्कप्रन्थत्रय उदारभाव से मैं बिना किसी कठिनाई के इसका सम्पादन करने में समर्थ हुआ । ग्रन्थ के टिप्पण हिन्दीलेखन आदि सभी कार्य आपकी सूचना एवं परामर्श के अनुसार ही हुए हैं । सिंघी ग्रन्थमाला के संस्थापक सदाशय बाबू बहादुरसिंह जी सिंघी-जो बिना किसी सम्प्रदायमेद के उत्तम साहित्य का अकल्पित औदार्य से प्रकाशन कर संस्कृति के इस अंग की भी सुदृढ़ रक्षा कर रहे हैं। ग्रन्थमाला के संपादक विद्वान् मुनि श्रीजिनविजयजी-जिनकी सुसंस्कृत कार्यप्रणाली से ग्रन्थमाला का सर्वाङ्ग सुन्दर प्रकाशन हो रहा है, तथा जिनने सम्पादन के आभ्यन्तर एवं बाह्य स्वरूपनिर्धारण में अपने चिरकालीन सम्पादन प्रकाशन के अनुभव से अनेकों सूचनाएँ दीं। मुनि श्रीपुण्यविजयजी-आपने प्रमाणसंग्रह की प्रेसकापी को तथा प्रूफों को ताड़पत्र से मिलाकर अनेक शुद्ध पाठों की सूचना दी। प्रमाणसंग्रह का प्रतिपरिचय भी आपने ही लिखा है। आप जैसा निःस्वार्थ साहित्यप्रेम अन्यत्र कम दिखाई देता है। आप की इस सहज परकार्यपरायणता से मुझे बड़ा आश्वासन मिला है । भाई पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री-आपकी सहायता से ही सर्वप्रथम विवृति का संकलन किया गया था। आपने अपने संकलित न्यायविनिश्चय से हमें जब जरूरत हुई तब कारिकानिर्णय, अशुद्धिशोधन तथा पाठान्तर देने में सहज भ्रातृत्व से पूर्ण योग दिया। पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारआपने बड़े श्रम से तैयार किया हुआ न्यायविनिश्चयमूल का लिखित संग्रह पं० सुखलालजी का पत्र पाते ही तुरन्त भेज दिया। जिसके आधार से कारिकानिर्णय आदि में बड़ी सहायता मिली। त्रिपिटिकाचार्य भिक्षुवर राहुलसांकृत्यायन-आपने अपनी असाधारण कर्मठता से प्राप्त प्रमाणवार्तिक, प्रमाणवार्तिक मनोरथनन्दिनी टीका, प्रमाणवार्तिक स्वोपज्ञवृत्ति और स्वोपज्ञवृत्ति टीका के प्रूफ दिए, तथा प्रमाणवार्तिकालंकार की सर्वथा अलभ्य प्रेसकापी से नोट लेने दिए। आप की इस आन्तरिक उदारता के कारण मैं टिप्पणों में अलभ्य अत्रतरणों का संग्रह कर सका हूँ। मि. P. तारकस M. A. ने हेतुबिन्दुमूल देखने दिया । कविरत्न पं० चैनसुखदासजी, तथा मास्टर मोतीलालजी संघी जयपुर ने लघीयस्त्रयखविवृति की प्रति भेजी। पं० लोकनाथ पार्श्वनाथ शास्त्री मूडबिद्री ने न्यायविनिश्चयालङ्कार की प्रति भेजी । भाई पं० दलसुखजी न्यायतीर्थ ने छपाई परिशिष्ट आदि बनाने की सूचनाएँ दीं। प्रो० श्रीकण्ठशास्त्री मैसूर तथा प्रो० ए. एन. उपाध्याय कोल्हापुर ने अकलङ्क के समय विषयक अपने मन्तव्य की पत्र द्वारा विस्तार से सूचना दी। अतएव मैं उक्त महानुभावों का आन्तरिक आभार प्रदर्शन करता हूँ। इति शम् । सम्पादक श्रुतपंचमी, ज्येष्ठ शुक्ल वीरनिर्वाण सं० २४६६ स्याद्वाद विद्यालय काशी। न्यायाचार्य महेन्द्रकुमार शास्त्री .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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