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________________ नयनिरूपण] प्रस्तावना ६३ जा सकती है, तो दूसरीओर क्षणिकत्व, परमाणुत्व और निरंशत्व की दृष्टिसे अन्तिम भेद की कल्पना । तीसरी कल्पना इन दोनों चरम कोटियों के मध्य की है। पहिली प्रकार की कोटि में सर्वथा अभेद-एकत्व स्वीकार करने वाले औपनिषद अद्वैतवादी हैं, तो दूसरी ओर वस्तु की सूक्ष्मतम वर्तमानक्षणवर्ती अर्थपर्याय के ऊपर दृष्टि रखनेवाले, क्षणिक, निरंश परमाणुवादी बौद्ध हैं। तीसरी कोटि में पदार्थ को नानारूप से व्यवहार में लानेवाले नैयायिक, वैशेषिक आदि हैं। तीसरे प्रकार के व्यक्ति हैं भाषाशास्त्री, जिन्हें शब्दों के बाल की खाल खींचने में ही मज़ा आता है । ये लोग एक अर्थ की हर एक हालत में विभिन्न शब्द के प्रयोग को मानते हैं । इनका तात्यर्य है कि-भिन्नकालवाचक, भिन्न कारकों में निष्पन्न, भिन्न वचनवाले, भिन्नपर्यायवाचक, भिन्नक्रियावाचक शब्द एक अर्थ को नहीं कह सकते । शब्दभेद से अर्थ भेद होना ही चाहिए। उपर्युक्त ज्ञान, अर्थ और शब्द का आश्रय लेकर होनेवाले विचारों के समन्वय के लिए किए गए स्थूल मूल नियमों को नय कहते हैं। इनमें ज्ञानाश्रित व्यवहार का संकल्प-विचारमात्र को ग्रहण करनेवाले नैगमनय में समावेश हुआ । अर्थाश्रित अभेदव्यवहार का, जो "आत्मैवेदं सर्वम् , एकस्मिन् वा विज्ञाते सर्व विज्ञातम्" आदि उपनिषद्वाक्यों से प्रकट होता है, संग्रहनय में अन्तर्भाव किया गया। इसके आगे तथा एकपरमाणु की वर्तमानकालीन एक अर्थपर्याय से पहिले होनेवाले यावद् मध्यवर्ती भेदों का जिनमें न्याय वैशेषिकादि दर्शन शामिल हैं, व्यवहारनय में समावेश किया। अर्थ की आखिरी देशकोटि परमाणुरूपता तथा कालकोटि क्षणमात्रस्थायिता को ग्रहण करनेवाली बौद्धदृष्टि ऋजुसूत्रनय में शामिल हुई। यहाँ तक अर्थ को सामने रखकर भेदाभेद कल्पित हुए हैं। अब शब्दशास्त्रियों का नम्बर आया । काल, कारक, संख्या तथा धातुके साथ लगने वाले भिन्न भिन्न उपसर्ग आदि की दृष्टि से प्रयुक्त होनेवाले शब्दों के वाच्य अर्थ भिन्न भिन्न हैं, इस कालकारकादिवाचक शब्दभेद से अर्थभेद ग्रहण करनेवाली दृष्टि का शब्दनय में समावेश हुआ। एक ही साधन में निष्पन्न तथा एककालवाचक भी अनेक पर्यायवाची शब्द होते हैं। इन पर्यायवाची शब्दों से भी अर्थभेद माननेवाली समभिरूढनय की दृष्टि है। एवम्भूतनय कहता है कि जिस समय जो अर्थ जिस क्रिया में परिणत हो उसी समय उसमें तक्रिया से निष्पन्न शब्द का प्रयोग होना चाहिए। इसकी दृष्टि से सभी शब्द क्रिया से निष्पन्न हैं । गुणवाचक शुक्ल शब्द भी शुचिभवनरूप क्रिया से, जातिवाचक अश्वशब्द आशुगमनरूप क्रिया से, क्रियावाचक चलति शब्द चलने रूप क्रिया से, नामवाचक यदृच्छा शब्द देवदत्त आदि भी 'देवने इसको दिया' इस क्रिया से निष्पन्न हुए हैं । इस तरह ज्ञान, अर्थ और शब्दरूप से होनेवाले यावश्यवहारों का समन्वय इन नयों में किया गया है । पर यह समन्वय एक खास शर्त पर हुआ है । वह शर्त यह है किकोई भी दृष्टि अपनी प्रतिपक्षी दृष्टि का निराकरण नहीं कर सकेगी। इतना हो सकता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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