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________________ भावनगर मध्ये चारित्रपात्र मुनि श्री भक्तिविजयजी तथा यशोविजयजी योग्य अनुवंदना सुखशाता वांचना । आपका पत्र मिला । उत्तर क्रम से निम्नानुसार है पाटन के संघ की तरफ से, आपके लिखे अनुसार कोई ठहराव हुआ हो, ऐसा हमारे सुनने में या अनुभव में नहीं हैं परन्तु पोलीया उपाश्रय में अर्थात् यति के उपाश्रय में बैठने वाले स्वप्नों के चढ़ावे में से अमुक भाग उपाश्रय खाते में लेते हैं, ऐसा सुना है, जबकि पाटन के संघ की तरफ से ऐसा ( स्वप्नों की आय को उपाश्रय में ले जाने के लिए ) कोई ठहराव नहीं हुआ है । तो गुरुजी को अनुसति-सम्मति कहां से हो, यह स्वयं सोचने की बात है । विघ्नसंतोषो व्यक्ति दूसरों की हानि करने के लिए यद्वा तद्वा कुछ कहे, उससे क्या ? यदि किसी के पास महाराज के हाथ की लिखित स्वीकृति निकले तो सही हो सकती है अन्यथा लोगों के गप्पों पर विश्वास नहीं करना । मेरी जानकारी के अनुसार कोई भी प्रसंग ऐसा नहीं आया जब स्वप्नों की आय के पैसे उपाश्रय में खर्च करने की उन्होंने सम्मति दो हो। अभी इतना ही। द. : चतुरविजय (३) पूज्य प्रात्मारामजी म. के ही आज्ञावर्ती मुनिराजश्री भी स्पष्ट कहते हैं कि स्वप्न की प्राय देवद्रव्य में ही जातीहै। [ दूसरा महत्त्वपूर्ण पत्र यहाँ प्रकाशित हो रहा है । यह भी बहुत हो उपयोगी बात पर प्रकाश डालता है । पू. आ. म. 36 ] [ स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य
SR No.002500
Book TitleSwapnadravya Devdravya Hi Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakchandrasuri, Basantilal Nalbaya
PublisherVishvamangal Prakashan Mandir
Publication Year1984
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size8 MB
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