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________________ वीतराग । सपर्यात स्तवाज्ञा-पालनं परम् । आज्ञा-राद्धा विराद्धा च शिवाय च भवाय च ॥ हे वीतराग ! आपकी पूजा के बनिस्पत आपकी आज्ञा का पालन करना श्रेष्ठ है। क्योंकि आपकी आज्ञा की आराधना मोक्ष प्राप्त कराती है और आज्ञा की विराधना संसार में भ्रमण कराती है। उपदेश-सप्ततिका के पांचवे अधिकार में कहा है कि - ज्ञानद्रव्यं यतोऽकल्प्यं देव-द्रव्यवदुच्यते साधारणमपि द्रव्यं कल्पते संघ-सम्मतम् एकैवेव स्थानके देव-वित्तं क्षेत्र - द्वय्यामेव तु ज्ञान-रिक्थम् ॥ सप्त क्षेल्यां स्थापनीयं तृतीयं श्री सिद्धान्ते जैन एवं ब्रवीति । देवद्रव्य की तरह ज्ञानद्रव्य भी अकल्पनीय कहलाता है । साधारण द्रव्य भी संघ की सम्मति से सात क्षेत्रों में काम आता है, देवद्रव्य एक ही स्थान (क्षेत्र) में काम आता है और ज्ञानद्रव्य ऊपर के दो क्षेत्रो में काम आता है । साधारण द्रव्य सातो क्षेत्र में काम आ सकता है ऐसा सिद्धान्तो में कहा है। पायेणंत - देऊल जिण - पडिमा कारिआओ जियेण । असमंजस- वित्तीए न य सिद्धो दंसण - लवोवि ॥ इस जीव ने प्रायः करके अनंत मंदिर और जिन प्रतिमा बनवाई होगी परंतु शास्त्रविधि के विपरीत होने से सम्यक्त्व का अंश भी प्राप्त नही हुआ। 'न पूइओ होइ तेहिं जिन- नाहो' । आज्ञारहित द्रव्यादि सामग्री से जिनेश्वर की पूजा की हो तो भी वास्तविक जिन पूजा नहीं की। 'पूजाए मणसंति मण – संतिएण सुहवरे गाणं'। पूजा का फल मन की शांति है और मन की शांति से उत्तरोत्तर देवद्रव्यादि का संचालन कैसे हो ? *६१D
SR No.002499
Book TitleDevdravyadi Ka Sanchalan Kaise Ho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalratnasuri
PublisherAdhyatmik Prakashan Samstha
Publication Year1997
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size6 MB
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