SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - मत्तालिपाटल मलीमस कामभोगी; योगीश ! दुर्धरकषायफटोत्कटाक्षः; जय्यो जवेन जठराप्तजनोऽपि तेन, त्वन्नामनागदमनी हृदि यस्य पुंसः ...३७ भावार्थ अहो ! हे जगतारक ! जे मनुष्यना हृदय कमळमां तारा नाम रुपी नाग दमनी छे, तेनाथी दुर्घरकषायरुपी फणा वडे तीव्र कामोत्तेजित नेत्रोवाळा, वळी अनेक मनुष्यना भक्षण करनार भ्रमरोना समूहथी पण विशेष काळां अवां कामदेवरुपी सर्पने वेगपूर्वक जीती शकाय छे. कालोपमं विशददर्शनकृत्यशून्यं,. पक्षद्वयात् सदसतो धृततर्कजालम्, मिथ्यात्विशासनमिदं मिहिरांशुविद्धं, . त्वत्कीर्तनात् तम इवाशु भिदामुपैति ...३८ भावार्थ जेम सूर्यना किरणोथी भेदायेलु अंधारु सत्वर नाश पामे छे, तेम तारा कीर्तनथी कालकूट झेरनी उपमावाळु, निर्मळ श्रद्धाथी रहित वळी सत्-असत् अम बे पक्षनी तर्कजाळ पाथरनारा मिथ्यात्वीओ- शासन शीघ्र नाश पामे छे. 465
SR No.002497
Book TitleGirnar Geetganga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirthvikas Samiti
Publication Year2016
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy