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________________ भावार्थ हे नाथ ! हरणनां बाळको वडे चुंबित थतुं चंद्र ना मुखनी समान अनेक लक्षणोथी लक्षित तथा विश्व ने प्रकाशमय करनारुं अवुं तारुं चंद्ररुपी मुख रैवतगिरि उपर वसनारा अनेक समाधियोगथी युक्त ओवा आत्माओ वडे जोवाय छे. उद्योग भेष भवता क्रियतां किमर्थ ? किं वाऽथ ते नु वरवस्तुन ऊनमस्ति ? . त्वामेव वीक्ष्य शितिभं समुदो मयुर्यः, कार्य कियज्जलधरैर्जलभारनम्रै : ? १९ भावार्थ . हे परमात्मा ! श्याम वर्ण वाळा ओवा तारा मनोहर रुपने जोइने ज मयूरीओ हर्षित बनी जाय छे, तो पछी जळना भार वडे नम्र बनेला ओवा मेघोनुं कांई काम रहेतुं नथी तेम उत्तम राज्यादिक भोग सामग्री पाम्या बाद तारे शानी खोट छे के तुं तपश्चर्या, ध्यान, समाधि आदि योगोनो उद्यम करे छे ? इच्छावरं वरमिति स्वजनेन नुन्ना, वच्मीत्यहं द्रुतकराब्जनिरुद्धकर्णा; रत्ने यथा जनतया क्रियतेऽभिलाषो, नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि ...२० भावार्थ हे मारा नाथ ! ज्यारे मारा स्वजनो तने छोडीने अन्यने वरवानी प्रेरणा करे छे त्यारे हुं करकमल वडे मारा कानोने शीघ्र ढांकी दईने लोकोने कहुं हुं के लोको रत्ननी अभिलाषा राखे छे परंतु अनेक किरणोथी युक्त ओवा काचना कटकानी अभिलाषा राखता नथी. १९७
SR No.002497
Book TitleGirnar Geetganga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirthvikas Samiti
Publication Year2016
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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