SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावार्थ हे दयानिधि ! जेम ते पशुओना प्राणनी रक्षा काजे तेना उपर दया आणी तेनुं कल्याण कयुं तेम मारा प्राण पण रक्षण करनार थाओ ! बाळकना बचाव अर्थे कष्टमां सपडायेली ओवी अपराधी पत्नी सन्मुख शुं तेनो पति उगारवा जतो नथी? तीक्ष्णं वचोऽप्यभिहितं मयका हितं यत्, तत् ते भविष्यतितरां फलवृद्धिसिद्धयें; यद्हेलीधाम तपतीश ! भृशं निदाघे, तच्चारुचूत कलिका निकरैक हेतु ...६ . भावार्थ हे नाथ ! मारा कठोर पण हितकारी वचनो आपना राज्यादिक । समृद्धिना सुख रुपी फळनी वृद्धि माटे ज थशे कारण के शुं ग्रीष्म ऋतुना अत्यंत तपतां सूर्यकिरणोने कारणे ज आंबाने मनोहर मंजरीनी प्राप्ति नथी थती? आगच्छ कृच्छहर ! हच्छयचित्रपुंखलक्ष्मीकृतां कृशतनुं क्षम ! रक्ष मां त्वम् त्वत्संगमे क्षयमुपैष्यति मेऽतिदुःखं, सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमंधकारम् ...७ ૧૧
SR No.002497
Book TitleGirnar Geetganga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirthvikas Samiti
Publication Year2016
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy