SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाव से नमस्कार मात्र क्रिया प्रधान बन जाएगा । ऐसे नमस्कार से निर्जरा संभव नहीं हो सकती, जब कि नमोभाव युक्त विनयी नमस्कार निर्जराकारक बन सकेगा। अतः नमस्कार की प्रवृत्ति के साथ नमस्कार की वृत्ति भी जोड़नी चाहिये । एक का उद्गम स्थान चारित्र के घर में है, दूसरे का उद्गम स्थान तप में हैं | चारित्र दूध स्वरुप हो, तो तप उस में शक्कर का कार्य करता है, ईसी प्रकार नमस्कार में गुणवत्ता लाने का कार्य तप करता है । चाकू हो, पर यदि तीक्ष्ण धारयुक्त न हो तो किस काम का ? इसी प्रकार चारित्र के घर में सक्रिय-क्रियाशील नमस्कार की प्रवृत्ति है, परन्तु तप के घर से यदि उसमें विनम्रभाव, विनय सम्पन्नता की वृत्ति न घुले तो वह नमस्कार प्रभावशाली नहीं बनता, और इसका परिणाम यह होता है कि नमस्कार करने पर भी निर्जरा नहीं होती । बाहुबलीने नमस्कार भाव में केवलज्ञान की प्राप्ति की थी, अकेला नमस्कार मात्र चारित्र भाव का ही होगा, तो वह संवर प्रधान बन कर पुण्योपार्जनोपयोगी बन जाएगा परन्तु तप प्रधान विनय गुण संपन्न भावयुक्त बनेगा तब वही नमस्कार निर्जरात्मक बनेगा। वीर्यगुणसम्पन्न नमस्कार : जिस प्रकार नमस्कार ज्ञानदर्शन-चारित्र-तपादि भाव युक्त है, उसी प्रकार वीर्यगुण युक्त भी यही नमस्कार है । वीर्यशक्तिविहीन नमस्कार में कुछ भी सार्थकता नहीं होती है । वीर्यान्तराय कर्म आत्मा के वीर्य गुण को ढंक देता है। अंतराय का कार्य विघ्न डालना है । 'विघ्नकरणमन्तरायस्य' तत्त्वार्थकार इस सूत्र से स्पष्ट करते हैं कि विघ्न डालना अंतराय कर्म का कार्य है । इस प्रकार नमस्कार यदि वीर्यान्तराय कर्म के घर का होगा तो वह मात्र शारीरिक रहेगा और यदि यही नमस्कार वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम भाव से आत्मिक वीर्यगुण से प्रेरित होगा तो ऐसे नमस्कार में उत्साह-उमंग-आनंद आएगा । उत्साह-हर्ष-आनंदादि आत्मा के वीर्यगुण पर आधारित हैं । उत्साहादि भाव मन पर प्रभाव डालने वाले होते हैं, जिसके परिणाम स्वरुप मन के साथ संकलित देह अपनी क्रिया-प्रवृत्ति में तदनुकूल उत्साह प्रदर्शित कर सकेगा । इसीलिये नमस्कार मात्र कायिक ही नहीं रहना चाहिये, बल्कि वह मनोयोग पूर्ण मानसिक नमस्कार होना चाहिये । मनोयोग में वीर्यगुणजन्य उत्साह उमंग आनंद घुलेगा तब नमस्कार और अधिक प्रबल और दृढ होगा तथा वही नमस्कार दसगुनी अधिक निर्जरा करवाएगा । अतः नमस्कार 63
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy