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________________ भी दिन धर्मविहीन नहीं होता है । वहाँ बीश-बीश विहरमानतीर्थंकर भगवंत विचरण करते ही रहते हैं। उपर्युक्त इतनी भौगोलिक स्थिती समझ में आ गई होगी। अब विचार करो कि इतने बडे विशाल चौदह राजलोक में, तीनों लोकक्षेत्र में तथा ढाई द्वीपादि क्षेत्रों में नवकार महामंत्र का सदा काल रटन-स्मरण, जाप, ध्यान आदि चलता ही रहता है। भौगोलिक दृष्टि से नवकार महामंत्र की आराधना उपासना समस्त लोक में सर्वत्र सतत चलती ही रहती है - इस संबंध में हम क्रमशः एक एक पर विचार करें। नरकगति में नवकार - चौदह राजलोक में नीचे के ७ राजलोक प्रमाण अधोलोक को नरक कहते हैं। ऐसी सात नरकभूमियाँ हैं, जिनके नाम हैं - (१) रत्नप्रभा, (२) शर्कराप्रभा, (३) वालुकाप्रभा, (४) पंकप्रभा, (५) धूमप्रभा, (६) तमःप्रभा और (७) तमस्तमप्रभा (महातमःप्रभा)। इन सातों ही नरक-पृथ्वियों में नारकीय जीव रहते हैं। उनकी संख्या भी असंख्य होती है। वहाँ सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि वाले दोनों प्रकार के जीव होते हैं। यहाँ मनुष्यगति में से क्षायिक सम्यक्त्व के स्वामी और कदाचित् पूर्व में भारी कर्मोपार्जन करके निकाचित कर्म के योग से नरक गति में जाना पडा हो और गए हो, जाते समय अंतर्मुहूर्त काल में मिथ्यात्व का स्पर्श कर गए हो, परन्तु पुनः वहाँ जाकर सम्यक्त्व ही प्राप्त करते हैं और वहाँ सदैव वे जीव सम्यक्त्वी के रुप में ही रहते हैं। उदाहरणार्थ श्रेणिक राजा का जीव क्षायिक सम्यक्त्व का स्वामी था, परन्तु पूर्व में भारी पाप कर्मों के उपार्जन के फलस्वस्म उन्हें प्रथम नरक में जाना पडा, जहाँ उन्हें ८४ हजार वर्ष तक रहना पडेगा और फिर वहाँ से निकलकर इसी भरत क्षेत्र में आगामी उत्सर्पिणी काल के चौथे ओर के प्रारंभ में वे यहीं जन्म धारण करेंगे और प्रथम तीर्थंकर पद्मनाभ स्वामी बनेंगे। इस समय उनका जीव द्रव्यजिन कहलाता है। दव्वजिणा जिणजीवा - शास्त्र की इस पंक्ति में कहा है कि द्रव्य से जिनेश्वर का जीव भी द्रव्य जिन कहलाता है, अतः तीर्थकर न होने पर भी, परन्तु तीर्थकर नामकर्म बाँधा हुआ होने से अभी वे द्रव्यजिन कहलाते हैं, और इस सिद्धान्त के अनुसार ही हम उनकी प्रतिमा भरवाकर मंदिर में प्रतिष्ठा करके पूजन करते हैं। राजस्थान के उदयपूर शहर - झीलों की नगरी में इन्हीं पद्मनाभस्वामी का अति प्राचीन विशाल तीर्थ है, जिसमें आगामी चौबीशी के प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री 28
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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