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________________ सर्वज्ञ बने हुए प्रभु समवसरण में धर्मोपदेश-धर्मदेशना देते हैं। जिस धर्म की स्थापना थी नहीं, पूर्व के तीर्थंकर भगवंतो के द्वारा स्थापित धर्म का विलय होने के बाद कई सागरोपमों का काल बितने के बाद सर्वज्ञ बने हुए प्रभु समवसरण में धर्मोपदेश धर्मदेशना देते हैं । पुनः धर्म की प्ररुपणा करते हैं | धर्म समझाते हैं, पुनः धर्मप्रवर्तन होता हैं । जनमानस धर्मोपासना करने के लिये तैयार होता है। यह धर्मतीर्थ एक मात्र तीर्थंकर ही स्थापित करते हैं, अतःतीर्थ की स्थापना करनेवाले तीर्थंकर भगवान कहलाते हैं। तीर्थंकर परमात्मा अपने जीवन की अंतिम श्वास तक प्रतिदिन देशना- धर्मोपदेश देते रहते हैं । देवतागण प्रतिदिन समवसरण की रचना करते हैं।इस समवसरण में मनुष्य गति के नर-नारी, देवगति के देवी-देवता तथा तिर्यंच गति के पशु-पक्षी प्रभु की अमृतमयी देशना सुनने के लिए आते हैं । प्रभु देशना सुनकर कई जीव धर्म प्राप्त करते हैं, धर्माभिमुख बनते हैं, धर्म का आचरण करते हैं । मनुष्यगति के नर-नारी सर्वस्व का त्याग करके संयम ग्रहण करते हैं । वैराग्य भाव से प्रव्रजित होकर आत्म-साधना करते हैं । आत्म साधना के फलस्वरुप कर्मनिर्जरा करके मोक्ष में भी जाते हैं । ऐसा है धर्मतीर्थ की स्थापना का महत्व । अरिहंत को भगवान मानें : जिन-जिनेश्वर के धर्मानुयायी जैनो राग-द्वेषादि आंतर शत्रु के विजेता अरिहंत परमात्मा को ही भगवान के रुप में स्वीकारते - मानते हैं । तीर्थंकर, जिन, जिनेश्वर, वीतरागी, परमेश्वर, परमात्मा, भगवान आदि अरिहंत परमात्मा के पर्यायवाची नाम है परन्तु ईश्वर शब्द का अधिक प्रयोग जैनों ने नहीं किया है क्योंकि ईश्वर शब्द को जैनेतरो ने जगत्कर्ता के रुप में प्रायः रुढ कर दिया है। ईश अर्थात् स्वामी- मालिक । किसका मालिक ? उत्तर में कहते हैं कि यह जगत् ईश्वर ने बनाया है, सृष्टि की रचना भी ईश्वर ने ही की है, अतः जगत् का मालिक -स्वामी कहलाता है। ऐसी जैनेतर दर्शनों की मान्यता है, यह और ऐसी मान्यता जैनों को मान्य नहीं हैं। क्योंकि ईश जगत् या सृष्टि ईश्वर रचित नहीं मानते हैं । जगत् कर्माधीन है, सभी जीव अपने -अपने कर्मो के आधीन होकर अपना संसार बनाते हैं, अतः जैनों ने ईश्वर को सृष्टि- कर्ता नहीं माना हैं । इसीलिये ही ईश्वर शब्द का प्रयोग कम करते हैं । सृष्टिकर्ता के अर्थ में ईश्वर शब्द का प्रयोग नहीं करते हैं। जब करते भी हैं तब सृष्टिकर्ता का संदर्भ नहीं होता है। ईश्वर के साथ परम विशेषण जोडकर परमेश्वर अथवा परमेष्ठि शब्द का प्रयोग करते हैं लेकिन सर्वाधिक 409
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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