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है । लक्ष्य बिन्दु कभी भी बदलना नही चाहिये, क्यों कि साध्य की स्थिरता पर ही साधना की स्थिरता रहेगी । यहाँ जिस प्रकार अरिहंत शब्द से सर्वांशिक और अर्धाशिक दोनों प्रकार के अर्थ निकाले गए हैं, वे दोनों हमारे साध्य स्वरुप में है - अर्थात् इन अर्थों के आधार पर हमें दोनों प्रकार के साध्य रखने का निर्देश है। एक तो अरिओं का सर्वथा संपूर्णतः सर्वांशिक हनन नाश करके जो आत्मा सिद्धात्मा बनती है उनके जैसा सिद्ध स्वरुपी बनने का लक्ष्य एक प्रकार का साध्य हैं । दूसरे अर्थ में अरिओं का अर्धांश में नाश या क्षय हो और पूर्वोपार्जित तीर्थंकर नामकर्म के आधार पर जिन्होने तीर्थंकरत्व प्राप्त किया हैं, ऐसे बारह गुणयुक्त अरिहंत भगवान बनने का प्रयत्न करने का नाम है अरिहंत का साध्य । यह लक्ष्य भी कोई जैसा तैसा सामान्यार्थ नहीं है ।
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नाश
अतः
अरिहंत अरिहंत में अरिओं - आत्म शत्रु रुपी कर्मों का हन्त करने का आदेश है । भगवान फरमाते हैं कि मैंने भी यही कार्य किया है, तुम भी ऐसा ही करो । तुम भी अपनी आत्मा पर लगे हुए आत्म अरि कर्मशत्रुओं का क्षय करो उनका नाश करो और आत्मा को उनके चंगुल में से छुड़वाकर मुक्त करो । परम अरिहंत परमात्मा जीवात्माओं को ऐसी आज्ञा प्रदान करते हैं । " आणा धम्मो ” आज्ञा (पालन ) ही धर्म हैं । इस नियम के अनुसार अरिओं का हन्त - हनन नाश करने की आज्ञा पालन ही धर्म सिद्ध होता हैं । प्रत्येक जीवात्मा का धर्म है कि वह अपनी आत्मा पर लगे हुए कर्म रुपी अरिओं- शत्रुओं का नाश करे - यही धर्म हैं । प्रभु ने कर्मक्षय कारक धर्म बताया है, अतः इन अरि-रिपुओं का नाश करने के लिये जो कुछ भी करना पड़ता है । वह सब धर्म ही है, क्योंकि अंधर्म से तो कर्म नाश नहीं, बल्कि कर्मबंध होता है, जब कि धर्माचरण कर्मक्षय करवाता है । अतः अरिहंत शब्द स्पष्टरुप से धर्मस्वरुप है, आज्ञा देता है और अरिओं के हनन की प्रक्रिया सिखाता है । जिस धर्म में अरिओं के हनन की प्रक्रिया नहीं, वह धर्म नहीं बल्कि अधर्म कहलाता है । अधर्म का आचरण पुनः नए कर्म शत्रु खड़े करेगा अतः धर्म ही आचरणीय है । प्रभु की आज्ञा पालन एक धर्म है । जिनाज्ञा - पालन में धर्म की स्थिरता है । इसी लिए स्पष्ट ही फरमाते है कि “जिनाज्ञा परमो धर्मः " - अर्थात् जिन-जिनेश्वर तीर्थंकर परमात्मा की सर्वोच्च आज्ञा ही यह है कि निर्जरा में ही रहो, अरिओं का हनन करते रहो । और ऐसा करते रहोगे तो एक दिन अरिहंत स्वरुपी बन जाओगे । अरिहंत की साधना में आलम्बन भी अरिहंत परमात्मा का ही रखना पड़ता
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