SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्तोत्रस्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धां भक्त्या मया रुचिरवर्ण विचित्रपुष्पाम् । धत्ते जनो य इह कंठ - गतामजस्रं तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मी : ॥४४॥ अर्थात् हे जिनेन्द्र भगवान ! मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक विविध वर्णवाले रंग-बिरंगे सुंदर गुणरुपी पुष्पों से अर्थात् पुष्पों के स्थान पर गुणों को ही गूंथकर यह जो गुणस्तोत्र रुपी माला बनायी गई है, इस स्तोत्र की माला को जो भी भाग्यशाली स्वकंठ में धारण करेगा वह सर्वश्रेष्ठ लक्ष्मी अर्थात् मोक्षपद को प्राप्त करेगा, अर्थात् गुणरुपी स्तोत्र को जो अपने कंठ में रखेगा- जो स्वकंठ से गाता रहेगा, वह उच्च पद प्राप्त करेगा । मात्र पुष्प-माला गले में धारण करने की बात नहीं है, परन्तु यहां गुणों को ही पुष्प बनाया गया है और विविध गुणों को विविध रंगों वाले पुष्पों की तरह गूंथकर सुंदर सुशोभनीय माला बनाई गई है ऐसी माला को मात्र गलेमें पहनकर रखने की ही बात नहीं है, परन्तु उसे कंठ से गाने की होती है, अर्थात इस स्तोत्र में प्रस्तुत गुणों को जो भी व्यक्ति गाएगा-स्मरण करेगा, वह ऐसा उच्च पद प्राप्त करेगा- इस प्रकार गुणों के गूंथन स्वरुप स्तोत्रों की रचना की गई थी ऐसे स्तोत्रों में इष्टदेव के मंत्र गुप्त रुपसे समाहित किये गए हैं- छिपाए गए हैं, ताकि मंत्र प्रकट न हो पाएँ और साथ ही स्तोत्रपाठ के रुप में प्रभुभक्ति करते हुए प्रभु का गुणगान करने में लोगों को आनंद आए इस प्रकार की रचनाएँ करने में हमारे पूर्व महापुरुषों ने बडी ही दीर्घदृष्टि का उपयोग किया है । इसका सुंदर उदाहरण “श्री नमिऊण स्तोत्र" है । इस स्तोत्र में गुप्तता का भाव स्पष्ट रुप से प्रकट किया गया है । एअस्स मज्झयारे, अट्ठारस अक्खरेहि जो मंतो । जो जाणइ सो झायइ, परमपयत्थं फुडं पासं ॥ इस (नमिऊण) स्तोत्र में अठारह अक्षरों का जो गुप्त मंत्र है, उसे जो जानेगा, वही उसका ध्यान करेगा, तो परमपद मोक्ष को प्राप्त करेगा । इस प्रकार मंत्रों की गुप्तता रखी गई, और मंत्रों को गोपनीय बनाया गया, ताकि चाहे जो व्यक्ति मंत्रों का निरर्थक दुरुपयोग न करे, बल्कि योग्य व्यक्ति गुणस्तुतिरुप प्रभु भक्ति में मग्न हो सके भक्ति तारक होती है, कल्याणकारी होती -
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy