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________________ लेखक के मनोगत भाव क्या मंत्र भी कभी दार्शनिक तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण होता है ? यह प्रश्न दीमक की तरह वर्षों से दिमाग खा रहा था। सेंकड़ो मंत्रो को टटोलते गया। अधिकांश मंत्रों में कुछ न कुछ प्राप्ति की याचना दिखाई दी और इस याचना में भी भौतिक पौद्गलिक सुख की प्राप्ति का प्रमाण काफी ज्यादा लगा। कई मंत्रों में दुःख नाशक, विघ्न एवं संकट नाशक, आपत्ति नाश की याचना ही काफी ज्यादा दिखाई दी। इससे भी निम्नकक्षा के कई मंत्रो में शत्रुनाश या वशीकरण आदि की सेंकड़ों बातें थी। आखिर मन हैरान था कि... अरें ! मंत्रो में कहां दार्शनिक तत्त्वज्ञान को ढूंढना ? शायद यह वैचारिक अपराध तो नहीं था ? लेकिन जैनधर्म के नमस्कार महामन्त्र की गहराई में उतरने पर ऐसा लगा कि नहीं खोज की दिशा का यह विचार सर्वथा निरर्थक नहीं है। विचार की सार्थकता ने हकारात्मक अभिगम अपनाया। बस, फिर तो क्या था ? मानों मन को परियों के जैसे पंख निकल आए। जैसे- जैसे नवकार की गहराई को छूता गया... चिन्तन की प्रक्रिया ने आसमान की दूरी देखते-देखते नवकार की विराटता को मापना शुरु किया और चिन्तन की लहरों को शब्द देह में कुछ उतार पाया बस, नवकार की ही असीम कृपा का यह अनुठा प्रमाण है। अमदाबाद के साबरमति के चातुर्मास में प्रायः वि.सं. २०४४ में ४ मास के चातुर्मास के १६ रविवारों की मध्यान्ह प्रवचनमाला का विषय ही नवकार रखा। “नमस्कार महामंत्र नुं अनुप्रेक्षात्मक विज्ञान” विषयक शीर्षक से चल रही प्रवचनमाला के व्याख्यनों को लिखता गया । चिन्तन के आनन्द ने मन को बहलाया लेकिन इसी आनन्द को लोगों तक पहुंचाने के लिए शब्द देह देना अनिवार्य था। - ... ... गुजराती भाषा में प्रवचन और लेखन दोनों चलते रहे। साधु जीवन में परोपकार करने के इन दोनों प्रबल माध्यमों का भरपूर उपयोग किया। साबरमती संघ ने मुद्रण कराके प्रकाशित किया । लोगों के करकमलों में पुस्तकें पहुंची। वाचक वर्ग की रुचि ने द्वितीय आवृत्ति को भी जन्म दिया। आख़िर चिन्ता थी हिन्दी भाषी वर्ग की । हिन्दी भाषी वर्ग हमेशा यह आरोप लगाता ही रहा कि - गुजराती भाषा में साहित्य की भरमार है लेकिन हिन्दी भाषा में जैन धर्म विषयक साहित्य की काफी कमी है। अतः सतत चाहता रहा कि हिन्दी संस्करण भी इसका निकल जाय तो काफी मानसिक शान्ति मिलेगी। लेकिन नया सर्जन करने के मनोत्साह ने अनुवाद हेतु कलम न उठाने की मानों प्रतिज्ञा ही कर ली हो अतः मेरी मानसिकता तैयार न हो पाई। आखिर सिरोही के विद्वान श्रीमान जसराजजी सिंघी ने यह बीडा उठाया। स्वीकृति प्रदान की और कलम चलाकर मेरी गुजराती को हिन्दी रूप दिया। अब प्रकाशन की व्यवस्था की खोज रही। योगानुयोग राजस्थान की धर्मभूमि लुणावा में चातुर्मास था । हिन्दी संस्करण के प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन हेतु श्री संघ को प्रेरणा दी । “नवकार सम्मेलन” के सुनहरे अवसर को दृष्टि समक्ष रखकर श्री लुणावा संघ ने ज्ञानखाते में से आर्थिक सहयोग प्रदान किया। बम्बई के किरीट वडेचा मुद्रक ने कॉम्प्युटर पर कम्पोजिंग करने में काफी अच्छा सहयोग देकर पूर्ण किया । वयोवृद्ध ज्ञानप्रेमी रमणिकभाई सलोत ने मुद्रण व्यवस्था संभाली। मुनि हेमन्तविजय ने प्रुफ संशोधन की जिम्मेदारी अदा की। इन सब के सामूहिक सहयोग ने प्रस्तुत हिन्दी संस्करण को वाचक वर्ग के कर कमलों में पहुंचाने में सफलता दिलाई है। अतः सभी अभिनंदन के पात्र है। मेरी बस इतनी ही अपेक्षा है कि वाचक वर्ग नवकार जैसे महामंत्र की दार्शनिकता को समझकर सत्य को पाए सम्यग् दर्शन पाकर अपना मोक्ष सुनिश्चित करले बस...... पंन्यास अरुणविजय XV
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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