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________________ (१) योग्य पात्र को अन्न देना, (२) पात्र को जल देना (३) पात्र को रहने बैठने आदि के लिए वसति अर्थात् स्थानादि देना, (४) पात्र को सोने के लिये गद्दी-बिस्तर-पलंग-शयनादि देना, (५) वस्त्र-पात्रादि देना, (६) आगंतुकादि का किसी भी निमित्त से मनोयोगपूर्वक शुभ चिन्तन करना, (७) आगन्तुकादि के प्रति वचनयोग से स्वागतादि की शुभ-मधुर कर्णप्रिय भाषा बोलना, (८) काययोग से स्वयं सेवा - परोपकार आदि के शुभ. प्रशस्त कार्य करना । (९) देव-गुरु-धर्मसंरक्षक-अग्रज, गुणवान पदस्थादि को नमस्कार करना - वंदन करना उनका सत्कार सम्मानादि करना । - उपरोक्त जो नौ प्रकार बताए हैं उनका शुद्धाचरण करने से, शुभ प्रवृत्ति करने से पुण्य बंध होता है - पुण्योपार्जन होता है । इन नौ प्रकारों में बाह्य और आभ्यंतर दो विभाग करते हैं तो प्रथम पाँच बाह्य प्रकार हैं, जिन्हें द्रव्य पुण्य भी कहते हैं, क्यों कि इन पाँचो में द्रव्य-वस्तुएं जैसे वस्त्र, पात्र, अन्न, जल, स्थानादि देनने का उल्लेख है । इन द्रव्यों को देने से द्रव्य पुण्योपार्जन होता है परन्तु शेष चार भाव पुण्योपार्जन के मार्ग हैं । आनेवाले योग्य पात्र-सुपात्रादि को सब कुछ देते तो दे देते हैं - वस्तुएँ दे देना सरल है, परन्तु मन-वचन - और काया के योगों से शुभ चिन्तनादि करना दुष्कर है । मन में चिन्तन करना कि अति उत्तम हुआ कि आप आ गए, आनंद हुआ; वचन योग से स्वागत करना, आओ, पधारो, और काययोग से उठकर सामने जाना, आसनादि बिछा देना, योग्यआसन पर बिठाना आदि - इस प्रकार मन-वचन-काया के शुभयोगों की शुभ प्रवृत्तियां पुण्योपार्जन करवाने वाली हैं और अंत में नौवाँ अंतिम प्रकार नमस्कार पुण्य है । देव-गुरुधर्म-सहधर्मी बंधु, अग्रज वर्ग, माता-पिता, विद्यादाता विद्यागुरूआदि को वंदन नमस्कार करना, उनका पूजनादि करना जो जिसके योग्य हो उसके अनुसार उचित वंदनादि करना भी पुण्य बंध का कार्य है । ___यदि पुण्य के हेतु से क्रिया या प्रवृत्ति की जाए तो पुण्यबंध होता है और यदि पुण्य का हेतु ही निकाल दिया जाए और कर्मक्षय-निर्जरा करने का भाव रखा हो तो निर्जरा भी होती है। जैसा हेतु वैसा कर्म । इस प्रकार नमस्कार से भाव पुण्य का बँध होता है । नमस्कार करने मे रुपया-पैसा कहाँ लगता है ? तो फिर पुण्य को हाथ से क्यों जाने दें ? अतः देव-गुरुजनों को वंदन नमस्कारादि अवश्य करो।
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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