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________________ 1 और जो सर्वज्ञ और वीतरागी उभय गुणधारक हो उसके लिए अन्यथा - विपरीत कहने का कोई प्रयोजन ही नहीं रहेगा । इसलिए “पुरुषविश्वासे वचनविश्वासः” सबसे पहले तो पुरुष विशेष - परमात्मा में पूर्ण विश्वास संपूर्ण श्रद्धा रखना और फिर उनके वचन रूप आज्ञा में संपूर्ण श्रद्धा रखनी ही चाहिए। जिन वचन - जिनाज्ञा - जिनोपदेश रूप जो श्रुतज्ञान है वह सर्वज्ञोपदिष्ट उत्पाद, व्यय, और धौव्य से संयुक्त है। बस, इसे ही योगीश्वरों के तीसरे नेत्र के समान समझना चाहिए। तथा द्रव्यार्थिक – पर्यायार्थिक दोनों नयों के कारण सादि-अनादि व्यवस्थारूप है । द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अनादि है । और पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से यही श्रुत तीर्थंकर परमात्मा की दिव्य ध्वनि से प्रगट होता है । इस कारण सादि है । यही श्रुतशास्त्र समस्त नय-निक्षपों से वस्तुस्वरूप की परीक्षा करने 1 लिए कसोटी के समान है तथा स्याद्वाद - कथंचित् वचनरूपी वज्र के निर्घात से भग्न किये हैं- परास्त कर दिये हैं अन्य मतरूपी पर्वत जिसने ऐसा है । अर्थात् जिनाज्ञा - जिनवचन स्याद्वादादि से परिपुष्ट बनकर किसी भी मिथ्यामत से परास्त होनेवाला नहीं है । इसलिए जिस ध्यान में सर्वज्ञ की आज्ञा को आगे करके पदार्थों का सम्यगप्रकार - सत्य रूप से चिंतन करे... यही आज्ञाविचय रूप धर्मध्यान है । प्रशमरतिकार कहते हैं कि- आप्तवचनं प्रवचनं चाज्ञा, विचयस्तदर्थ निर्णयनम्” परमाप्त महापुरुष श्री जिनेश्वर परमात्मा का ध्यान यही आज्ञा है, जिनवचन स्वरूप द्वादशांगी - जिनागम आज्ञारूप ही है । उस आज्ञावचन के अर्थ का निर्णय करना ही विचय है । यह ऐसा आज्ञाविचय धर्मध्यान है । 1 जिन तथा जिनाज्ञा में अभेद - जैसे सूर्य-चन्द्र और उनकी प्रभाप्रकाश में अभेद संबंध है । वैसे सर्वज्ञ जिनेश्वर प्रभु और उनके सिद्धान्तरूप आज्ञारूप वचन में भी अभेद संबंध है । जिनाज्ञा अनादिनिदानरूप शाश्वत है । द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से द्वादशांगी का किसी भी काल में नाश होता ही नहीं है । सदा अस्तित्व रहता है । जिनाज्ञा जगत् के समस्त जीवों की पीडा - वेदना - संताप हरनेवाली है । अतः आत्यन्तिक हितकारी है । “सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता न हंतव्वा ।” आचारांग आगमशास्त्र (४ - १ - १) के इस आज्ञारूप वचन का पालन त्रिविध- त्रिकरण योग से यदि व्यवस्थित आचरण - पालन किया जाय तो समस्त जीवों का हित कल्याण होगा। इस आज्ञा का पालन करके अनन्त जीवों को अभयदान देकर अनन्तजीव मोक्ष में गए हैं। जिनाज्ञा स्याद्वादरूप होने से पदार्थ के त्रैकालिक सत्य स्वरूप को प्रकट करती है । सर्वज्ञ प्रभु स्वयं ही सर्वोत्तम - पुरुषोत्तम है । अतः उनकी आज्ञा भी अनमोल और सर्वोत्तम कक्षा की ही है, आध्यात्मिक विकास यात्रा १०३०
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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