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________________ है" । जबकि ऐसा कोई शास्त्रवचन है ही नहीं। अरे ! पहली बात तो यह स्पष्ट है कि संत-सती गोचरी-भिक्षा वहोरने में अप्रमत्त-सजग है या नहीं? उसे ४२ दोष देखकर उनका त्याग करने पूर्वक भिक्षा ग्रहण करनी है। तो क्या इस शास्त्राज्ञा का भी उल्लंघन वे करते हैं ? और वे यदि कहे कि हमको थोडे ही दोष लगता है ? बनानेवाले गृहस्थ को दोष लगता है, तो.. सीधी बात है कि... आपने गृहस्थ को... । सर्वज्ञ की आज्ञा इसके निषेध के लिए है । अनन्त जीवों का पिण्ड है । अतः सर्वथा त्याज्य है । अनाचरणीय ही है। यदि सन्तों-सतीयोंने अपना कर्तव्य सही निभाकर गृहस्थों को निषेध कराते गए होते-छुडाते गए होते तो गृहस्थ ही त्यागी बन जाते । जिससे उनके ही घर में नहीं आता, तो संत-सतीयों के पात्रो में नहीं आता। लेकिन ऐसे संत-सतियों ने मूल दयाधर्म का उपदेश नहीं दिया मात्र पंथ-संप्रदाय का प्रचार करने में लगे रहे, परिणाम स्वरूप संप्रदाय ममत्व, पंथमोह के कारण जिन मंदिर-दर्शन-पूजा न करने की सोगनें देते रहे । अरे ! धर्म न करने की सोगनें देकर धर्म छडाते जाना-और अधर्म-पाप को छुड़ाने के लिए सोगन ही न देना, ऊपर से खुद भी उसका आचरण करना । यह कहाँ तक सत्य है । अरे ! त्याग किसका करना? पाप का कि धर्म का? यह कैसा न्याय? क्यों जी? ऐसे तथाकथित भले संत-सतियों को अनन्तकायिक जीवों की हिंसा हिंसा नहीं लगी और पुष्पार्चा में ही हिंसा लगी। क्या उनको इतना भी ज्ञान नहीं है कि- पुष्प प्रत्येक वनस्पतिकाय है । प्रति + एक = प्रतिशरीर में एक ही जीव रहता है। जबकि आलु, प्याज, लहसून, गाजर, मूला, शक्करकंदादि जो कि साधारण वनस्पतिकायिक है जिनमें अनन्त जीव एक शरीर में साथ रहते हैं ऐसा पिण्ड अनन्तकाय कहलाता है । क्या इस बात को वे नहीं मानते? तो तो शायद सम्यग्दर्शन में भी संदेह होता है। आगम वचन पर भी जब अश्रद्धा है तो फिर सवाल ही कहाँ रहा है । या तो फिर क्या वे साधारण और प्रत्येक का भेद ही वनस्पतिकाय का नहीं मानते हैं? क्या साधारण वनस्पतिकाय के बादर उदाहरण रूप इन आलु-प्याजादि में वे तथाकथित संत-सतियाँ अनन्तजीवों का वास ही नहीं मानते हैं ? तो तो फिर सर्वज्ञ वचनरूप जिनाज्ञा ही नहीं मानते हैं। आगमाज्ञा भी नहीं मानते हैं जबकि आगम शास्त्र में है और वे भी पाठ करते ही हैं। ज्ञान धारण करने के बावजूद भी अश्रद्धा होने पर सम्यग्दर्शन ही संदिग्धास्पद हो गया। फिर तो ऐसा कहेंगे कि “किस आगम में आलु-प्याजादि नहीं खाना लिखा है ? ऐसा स्पष्ट निषेधात्मक उल्लेख कहाँ है ?" ऐसे और ये शब्द सुनकर उनकी आगम श्रद्धा का ख्याल स्पष्टरूप से आ जाता है । इससे ऐसा प्रश्न पूछने का मन होता है कि “तो फिर ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास" १०२७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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