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________________ जीवाइ नव पयत्थे, जो जाणइ तस्सहोइ सम्मत्तं । भावेण सद्दहतो, अयाणमाणेवि सम्मत्तं ॥ . जीवादि नो पदार्थों को जो सम्यग् रूप से जानता है, उसे सम्यक्त्बी कहते हैं । इन नौ तत्वों का ज्ञान तीर्थकर प्ररूपित कथन (जिनवाणी) के अनुसार एवं अनुरूप यथार्थ ही होना चाहिए। उसी को श्रद्धारूप सम्यक्त्व कहते हैं । श्लोक की दूसरी पंक्ति में जो बात कही गई हैं, उसका स्पष्ट अर्थ यह है कि ज्ञानावरणीय आदि कर्म के कारण यदि तत्वभूत पदार्थों का ज्ञान कोई विशेष कक्षा का न भी हो पाया हो, परन्तु सगुरु योग से श्रवणादि द्वारा समझकर उन तत्वों पर दृढ़ श्रद्धा रखना भी सम्यक्त्व कहलाता है; अर्थात् भाव से श्रद्धा रखता हुआ भी सम्यक्त्वी कहलाता है । इस तरह यहां पर तत्वभूत नौ पदार्थों का यथार्थ सम्यग् ज्ञान एवं उनकी भावपूर्वक दृढ़ श्रद्धा इन दोनों को सम्यक्त्व के जनक बताए हैं। इसी बात को उत्तराध्ययन सूत्र आगम के प्रस्तुत श्लोक से आधार मिलता है --- तहियाणं तु मावाणं, सन्मावे उवएसणं । • भावेण सद्दहंतस्स, सम्नत्तं तं वियाहियं ॥ यथार्थ सत्य स्वरूप सम्यक्त्वसम्यक्त्व की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि सम्यग् अर्थात् सही, सत्य, यथार्थ एवं वास्तविक आदि । तत्वभूत पदार्थ के वास्तविक सत्य को स्वीकारना ही सम्यक्त्व कहलाता है । अर्थात् जगत् का कोई भी पदार्थ, अपने स्वरूप में जो जैसा है. उसे उसी स्वरूप में, ठीक वैसा ही मानना, इसे सम्यक्त्व कहते हैं। यन् यथा तत्तथैव इति श्रद्धा एवं ज्ञानं सम्यक्त्वं उच्यते । अर्थात् जो तत्बभूत पदार्थ अपने स्वरूप में जैसा है उसे उसी स्वरूप में ठीक वसा ही मानना एवं जानना सम्यक्त्व कहलाता है । इसी व्याख्या को चाहे सम्यक्त्व की व्याख्या कहो, चाहे सत्य की व्याख्या कहो-दोनों बात एक ही है । क्योंकि सत्य को ही सम्यक्त्व कहते हैं । ठीक इसके विपरीत मानना या जानना मिथ्यात्व कहा जावेगा। मिथ्यात्व असत्य एवं अज्ञान रूप होता है । जबकि सम्यक्त्व सत्य एवं सम्यग् ज्ञान रूप होता है। अतः सम्यक्त्व में सत्य का आग्रह होता है और यथार्थता एवं वास्तविकता की दृष्टि होती है जबकि मिथ्यात्व कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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