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________________ करता था। उसमें अपूर्वकरण से, और कम करके, शुरू अध्यवसाय से संख्यात भाग जितनी ही काल-स्थिति रह जाती है । इसे अपूर्व स्थिति घात कहते हैं। (२) अशुभ कर्मों में रहे हुए उग्र रस को मंद बनाने रूप रस घात का कार्य अपूर्व रस घात कहलाता है। (३) गुण अर्थात् असंख्य गुणाकार और श्रेणी, अर्थात् कर्म दल की रचना करने, रूप क्रम या पंक्ति । स्थिति घात में बताए हुए. स्थिति में से प्रति समय जिन कर्म दलिकों को नीचे उतारता है, उन्हें उदय समय से लेकर अंतमहूर्त तक के स्थिति स्थानों असंख्य गुण के क्रम से सुव्यवस्थित करता है। ऐसी कर्म दलिक रचना को अपूर्व गुण श्रेणी कहते हैं । असंख्यात गुण असंख्यात गुण 'चढ़ते क्रम से अशुभ कर्म दलिकों का नये बंधाते हुए शुभ कर्मों में संक्रमण करना, अर्थात् अशुभ को शुभ में परिवर्तित करना। प्रति समय असंख्य गुण बनता जाय, उसे अपूर्व गुण संक्रमण कहते हैं । यहां आयुष्य के अतिरिक्त सात कर्मों का गुण संक्रमण होता है। (५) अपूर्व स्थिति बंध में अन्तमहूर्त में नए कर्म बंध की काल स्थिति पल्योपम के संख्यातवें भाग जितनी न्यूनतम होती है । अध्यवसाय की विशुद्धि पर कम बंध स्थिति अल्प होती है। सारांश यह है कि अपूर्वकरण के समय शुभ अध्यवसाय प्रति समय चढ़ते क्रम के होते हैं। अत: समय-समय पर उपरोक्त पांचों ही अपूर्वकरण चढ़ते क्रम में होते हैं। __इस तरह के उपरोक्त पांचों ही अपूर्व स्थिति घातादि जो अनादि भूतकाल में कभी भी नहीं हुए थे, और आज अपूर्व अर्थात् अभूतपूर्व रूप से होते हैं । अत: यह अपूर्वकरण कहलाता है । यह वीर्योल्लास रूप अपूर्वकरण अतमहूर्त ही रहता है। __ पहले किया गया यथाप्रवृत्तिकरण नामक प्रथम करण अंक रहित शून्य जैसा है, जबकि अपूर्वकरण होते ही शून्य के पूर्व में १ से ९ तक अंक लग जाते हैं । इससे सभी शून्यों की कीमत हजार लाख आदि बड़ी से बड़ी संख्या बन जाती है । वैसे ही यदि अपूर्वकरण न हो तो मात्र यथाप्रवृत्तिकरण की कीमत शून्य जैसी होती है । ७८ कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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