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________________ करनी है, ऐसा न जनते, न समझते हुए भी जीब िन कर्मों की अकामनिर्जर करता जाता है, उसे यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। ___ इस विषय में “नदीगोलपाषाण न्याय" का एक दूसरा दृष्टान्त भी है। उदाहरण के लिए समझिए कि-एक पहाड़ की घाटी के बीच में से एक नदी बह रही है । पानी के प्रवाह के साथ कई छोटे-बड़े पत्थर भी घसीटे जा रहे हैं । यद्यपि पत्थर अपनी तरफ से कुछ भी प्रयत्न नहीं कर रहा है, फिर भी पानी के प्रवाह के साथ घसीटा जाता हुआ वह पत्थर घिसते-घिसते एक दिन बड़ा ही सुन्दर मनोहर गोल आकृति वाला बन जाता है, जैसे मानों वह किसी मणि या रत्न की तरह लगना हो । इसे "नदी+पाषाण + न्याय" अर्थात् नदी के प्रवाह में जैसे पत्थर (पाषाण)| गोल हो जाता है ठीक इसी तरह पत्थर के स्थान पर मिथ्यात्व दशा में पटा हुआ जीव पाषाण की तरह स्वयं कोई प्रयत्न विशेष, स्वेच्छा से न करता हुआ, सुखदुःख की थपेड़ें खाता हुआ भी चतुर्गतिरूप संसार में अनन्त पुद्गलपरावर्तकाल से परिभ्रमण करता हुआ, यथाप्रवृत्तिकरण के लिए उद्यत होता है । इस तरह “नदीगोलपाषाण न्याय” या “घणाक्षर न्याय की तरह जीव अनाभोगभावरूप अर्थात् बुद्धि-समझ या स्वेच्छा के बिग भी जीव जो कर्मों के स्थिति बल को घटाता है तथा मिथ्यात्व को मन्द करता है. इसे यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं । मथाप्रवृत्तिकरण सामान्य विशेष (विशिष्ट) या पूर्वप्रवृत्त यथाप्रवृत्तिकरण दो प्रकार का होता है । (१) सामान्य यथाप्रवृत्तिकरण जिसे अभव्य जीव भी कर सकते हैं । (२) दूसरा विशिष्ट यथाप्रवृत्तिकरण जिसे शास्त्रों में पूर्वप्रवृतयथाप्रवृत्तिकरण कहा हैं-जिस करण के बाद निश्चित रूप से अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण की प्राप्ति होती ही है । ऐसे यथाप्रवृत्तिकरण को पूर्वप्रवृत्त-विशिष्ट यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं । अर्थात इसे करने वाला निश्चित ही ग्रन्थिभेद करके अन्य कारणों को करता हुआ आगे बढ़कर सम्यक्त्व पा लेता हैं। सही अर्थ में देखा जाय तो ऐसा यथाप्रवृत्तिकरण आत्मोन्नति या आत्मविकास की दिशा में प्रयास करने वाले जीव के लिए यह पहल कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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