SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसमें जितना काल बीते उसे १ द्रव्य बादर पुद्गल परावर्तकाल कहते हैं । इसमें यदि वर्गणाओं के कर्मानुसार यदि भोगे अर्थात् सभी वर्गणाओं के सभी पुद्गल परमाणुओं को वर्गणा रूप में ग्रहणपरिणमन, उज्झन आदि करता हुआ, जीव जितना काल बिताता है, उसे द्रव्य से सूक्ष्म पुद्गल परावर्त काल कहते हैं । इस तरह द्रव्य-क्षेत्रकाल-भावादि चार प्रकार से सूक्ष्म-बादर के साथ कुल आठ प्रकार के पुद्कल परावर्त काल होते हैं। पुद्गल परावर्त काल २ ३ ४ ५ ६ । । बादर द्रव्य सूक्ष्मद्रव्य बादरक्षेत्र सूक्ष्मक्षेत्र बादरकाल सूत्मकाल बादरभाव सूक्ष्मभाव पुद्गल पुद्गल पुद्गल पुद्गल पुद्गल पुद्गल पुदगल पुद्गल परावर्त परावर्त परावर्त परावर्त परावर्त परावर्त परावर्त परावर्त काल काल काल काल काल काल काल काल ऐसे पुद्गल परावर्त काल जीव ने भूतकाल में अनन्त बिताये हैं। शास्त्रकार महर्षि यहां तक कहते हैं कि-जीव ने भूतकाल में जो अनन्त पुद्गलपरावर्त बिताये हैं, वे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के सूक्ष्म पुद्गल परावर्त काल बिताये हैं । बादर तो मात्र सूक्ष्म को समझने की पूर्व भूमिका है । संसार में जीव ने इतने अनन्त पुद्गल परावर्तकाल बिताए हैं कि जिसकी गणना भी सम्भव नहीं है । जैसे जीवविचार में कहा है कि एवं अणोरप'रे, संसारे स यरंमि भीयंमि । पत्तो अणंतखुत्तो, जोवेहि अपत्त-धम्मेहिं ।। -"अणोरपारे" अर्थात् जिसका कभी पार न पाया जाय, ऐसे भयंकर संसार रूप महासागर में बिना धर्म की प्राप्ति के जीव अनन्तबार गिरा है । बड़ी गहराई तक फंसा हुआ रहा है। इस तरह अनन्तबार इस अनन्त संसार में गिरता-फेंसत जीव परिभ्रमण करता हुआ समय बिताता रहा। जहां तक सम्यग् सत्य धर्म प्राप्त नहीं हुआ, वहां तक जीव की यही स्थिति रही। जैसा कि हम पहली पुस्तक विवेचन कर चुके हैं, उतना अतन्त काल जीव ने सूक्ष्म निगोद (सूक्ष्म साधारण वनस्पतिकाय) में बिताया है, उसी तरह निगोद से बाहर निकलकर बाह्य संसार में भी अनन्तकाल बिताया है। चार गति में एवं एकेन्द्रिय से पचेन्द्रिय तक की पांचं कर्म की गति न्यार
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy