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________________ अवरोधक है। अतः इसे अच्छा कैसे कह सकते हैं ? जो आत्मा को विपरीतज्ञानअज्ञान-अश्रद्धा में रखे उसे अशुभ-पाप न कहें तो पुण्यरूप शुभ कैसे कह सकते हैं ? जब शुभ नहीं है तब अशुभरूप यह मिथ्यात्व पाप ही कहलायेगा । जो आत्मा को अनेक प्रकार के भारी कर्म बंधाता है, जिस मिथ्यात्व में कर्म बंध की स्थितियां उत्कृष्ट कक्षा की पड़ती हैं, जो आत्मा का विकास होने ही न दे, तथा जो आत्मा को संचारचक्र में दीर्घकाल तक परिभ्रमण कराता रहे, ऐसे मिथ्यात्व को किसी भी रूप में अच्छा कहना यह बड़ी भारी मूर्खता होगी । अत: इसे आत्मा का पहले नम्बर का खतरनाक शत्रु रूप पाप-कर्म कहा गया है । जहर (विष) को कैसे अच्छा कहें ? विषैले साँप को कैसे अच्छा मानें ? वेश्या को कैसे अच्छी मान सकते हैं। विष प्राणघातक है । इसके सेवन से मृत्यु हो जाती है । मृत्यु वड़ी दुःखदायी होती है । जहरीला साँप भी बड़ा खतरनाक होता है । उसके काटने से भी मौत की सम्भावना रहती है। अतः जहरीले साँप को यमराज समझकर लोग डरते हैं। वैश्या भी एक प्रकार का सामाजिक दूषण है । सन्निष्ठ सदाचारी सज्जन इसे चरित्रघातक एवं जीवन कलंकी मानकर इसे अस्पृश्य समझता हुआ बचकर रहता है। इस दृष्टिकोण से सोचने पर यह स्पष्ट लगता है किजहर, सांप और वैश्या आदि किसी को भी अच्छा नहीं कह सकते । वे अनर्थकारी हैं । जैसे हम इनसे बचकर रहते हैं, वैसे ही मिथ्यात्व भी आत्मगुणघातक हैं। जहर, सांप और वैश्या से जितना नुकसान नहीं होगा, शायद उससे भी अनेक गुना नुकसान मिथ्यात्व से होता है । साँप के काटने से, या जहर से सम्भव हैं कि एक ही बार मौत होगी, परन्तु मिथ्यात्व के कारण अनेक बार मरकर जीव को नरक आदि गति में जाना पड़ता है। मिथ्यात्व आत्मा के सम्यग्दर्गर गुण का घात करता है, तथा आत्मा की ज्ञान-स्वभावी दशा को कुण्ठित करता है । ज्ञान आत्मा का मूलभूत गुण है । जिस ज्ञान से आत्मा समस्त व्यवहार करती थी, उस ज्ञानदशा को मिथ्यात्व सर्वथा विपरीत ही कर देता है। परिणाम स्वरूप आत्मा अज्ञान के घेरे में फंसकर समस्त प्रवृत्ति एवं व्यवहार भ्रममूलक विपरीत करती है । जैसे अन्धेरे में पड़ी हुई टेढी-मेढी रस्सी को भ्रमवश साँप मानकर रोना, चिल्लाना, दौड़ना भागना आदि क्रिया करता है, या कभी ठीक उल्टा साँप को भ्रमवश रस्सी मानकर पकड़ने जाता है और मौत के मुंह में गिरता है, ठीक इसी प्रकार मिथ्यात्वी जीव की भ्रममूलक संदेहास्पद विपर्यय-विपरीत ज्ञानजनक जानकारी, मान्यता, प्रवृत्ति होती ४८ कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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