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________________ प. जीव जा नहीं सकता । अतः मोहनीय कर्म के बाद पांचवें क्रम पर आयुष्य कर्म का नम्बर रखा है। एक जन्म से अन्य जन्म में जाने के लिए सबसे पहले आयुष्य की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे आयुष्य रूप नीयत काल की अवधि को लेकर जीव नरक-तियंचादि चारों गति में जाता है। वहां उन गतियों में रहने के लिए उसे गति-जाति-इन्द्रियां, शरीर अंगोपांग, सूक्ष्मपना या स्थूलपना, यश-कीर्ति आदि प्रथम आवश्यकता रूप में अवश्य ही चाहिये । अत: आयु के बाद गति-जाति का कर्ता नामकर्म को छटें कम पर रखा गया है। यह चित्रकार की तरह सारा शरीर सजाकर देता है। अब नामकर्म के कारण जीव जिस गति-जाति में गया है, वहां रहने के घराना-गोत्र-कुल-वंशादि भी तो चाहिये । "बिना उसके जीव कहां जन्म लेगा। तः गोत्र-वंश-खानदान घराना, कुल-जाति आदि व्यवस्था करने वाला गोत्रकर्म सातवें क्रम पर काम करता है । अन्त में ऐसे उच्च-नीच-गोत्र-घराने में गए हुए जीव को वहां पर धन-सम्पत्ति, वस्त्र, पात्र, भोजन-पानी, स्त्री-पुरुष पुत्र-पौत्रादि परिवार या दान-लाभादि शक्तियां और भोग्य-उपभोग्य साधन सामग्रियां तथा शारीरिक शक्ति-बल आदि चाहिए। वह कर्मानुसार कम ज्यादा मिलेंगे या नहीं मिलेंगे यह व्यवस्था अन्तराय कर्म के आधार पर होती है। अतः अन्तिम आठवें क्रम पर अन्तराय कर्म आता है। यह अन्तराय कर्म दान-लाभादि की व्यवस्था का नियामक है । अत: यह इस प्रकार काम करता है। इस तरह आठों कर्मों का क्रम विचारा गया है। ये आठों ही मिलकर जीव के लिए सारा संसार खड़ा कर देते हैं। संसार की व्यवस्था में और कुछ शेष नहीं रहता है। अतः आठ कर्म के बाद किसी नवें कर्म की आवश्यकता नही पड़ती है। अतः कर्म आठ ही हैं तथा आत्मा के प्रधान मुख्य गुण भी आठ होने से उनके आवरक कर्म की संख्या भी आठ ही है । इन आठ कर्मों में घाती और अघाती नाम के दो विभाग किये जाते हैं। कर्म बाती-४ अघाती-4 शानावरणीय दर्शनावरणीय कर्म अन्तराय मोहनीय कर्म कर्म कर्म . नामकर्म गोत्रकर्म वेदनीयकर्म आयुष्यकर्म कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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