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________________ भी एक रुपया, इस तरह सबको एक जैसी बताता है। वैसे ही अनभिगृहिक मिथ्यात्वी जीव भी सच्चे-झठे, त्यागी-भोगी सभी भगवान, गुरु और धर्म को एक जैसा ही मानता है । यह उनकी अनभिगृहिक मिथ्यावृत्ति है। कई बार इस प्रकार के मिथ्यात्वी जीव ऐसा कहकर अपनी बात किसी के दिमाग में ठसाते हैं कि-अरे भाई ! मैं तो उदार वृत्ति वाला हूँ, विशाल भावना वाला हूँ, मैं संकुचितवृत्ति वाला नहीं हूं । इसलिए सभी भगवान को और सभी धर्म को एक ही मानता हूँ । इसलिए ऐसी उदार या विशाल भावना के कारण मैं बड़ा एवं महान् बनना चाहता हूँ । इस तरह वह अपनी वृत्ति दूसरों को भी समझाता है। स्वाभाविक है कि शब्दों की ऐसी मीठी जाल से दूसरे उसकी मिथ्यावृत्ति की भी प्रशंसा करने लग जाते हैं, और उसे एक अच्छा उदार दिल, विशाल भावना वाला मानने लगते हैं । अनभिगृहिक मिथ्यात्वी की ऐसी विचारधारा एवं विशालता और उदारता के बारे में यदि हम तर्क-युक्ति एवं बुद्धि पूर्वक सोचें तो कुछ और ही लगेगा । तर्कयुक्ति ऐसी दुविधा खड़ी करते हैं कि-१. जितना पीला है उतना सोना है, या जितना सोना है उतना पीला है । २. जो चमकती है वह चांदी है या जो चांदी है वह चमकती है। जो स्त्री है वह माता है या जो माता है वह स्त्री है। ४. जहां धुआ होता है वहां अग्नि रहती है या जहां अग्नि होती है वहां धुआ रहता है ? ५. जो मनुष्य है वह खाता है या जो खाता है वह मनुष्य कहलाता है ६. जो अरिहंत होते हैं वे भगवान कहलाते हैं ? या जो भगवान होते हैं वे अरिहंत कहलाते हैं । ७. जो हीरा होता है उसे रंगीन पत्थर कहना या जो रंगीन पत्थर होता है उसे हीरा कहना । ऐसे संदेहास्पद अर्थात् थोड़ी देर के लिए दुविधा में आने वाले ऐसे तक-युक्ति वाले कई प्रश्न खड़े होते हैं । परन्तु इनमें सही-सत्य छिपा हुआ है । तर्क एवं युक्ति पूर्वक तीक्ष्ण बुद्धि चलाने वाला इनमें से सही सत्य का सार खोज निकालेगा। परन्तु ऐसा अनभिगृहिक मिथ्यात्वी जो कि मंदमति है वह बुद्धि का उपयोग करने की झंझट में नहीं पड़ता है । तुलना और परीक्षा करने की भी उसकी वृत्ति नहीं होती है। अतः वह “सब एक है" ऐसा आसानी से कहता और मानता है । यदि परीक्षक बुद्धि से तुलना और परीक्षा करके सत्य खोजने के लिए छानबीन की जाय तो इसमें से हल्का-पतलासा अन्तर रखने वाला सत्य अन्तर जरूर मिलेगा। छाछ में घी नहीं दिखाई देते हुए भी मंथन करने पर जो नवनीत निकलता है उसमें से घी प्राप्त होता है । सत्य की खोज करना यह सम्यक्त्वी का कार्य हैं। कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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