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________________ अंध श्रद्धा और सभ्यग श्रद्धा श्रद्धा दो प्रकार की होती है-(१) सम्यग् श्रद्धा, (२) अंध श्रद्धा । सम्यग् ज्ञान जन्य श्रद्धा को सम्यग् श्रद्धा कहते हैं । ठीक इससे विपरीत अंध श्रद्धा में तत्व विषयक सम्यग् ज्ञान या तत्व रुचि आदि उत्पन्न नहीं होती है, परन्तु चमत्कार जन्य दुःख निवृत्ति एवं सुख प्राप्ति के निमित्तों से उत्पन्न हुई श्रद्धा अंध श्रद्धा कहलाती है । अंध श्रद्धालु व्यक्ति तत्वज्ञान की प्राप्ति के लिए या तत्वार्थ या यथार्थ, वास्तविक सत्यज्ञान के लिए कोई प्रयत्न या पुरुषार्थ नहीं करता है क्योंकि वह मूलतः तत्वरुचि जीव नहीं है । अतः वह आत्मा-परमात्मा मोक्षादि तत्वों में न तो ज्ञान ही सम्यग् रखता है और न ही सम्यग् श्रद्धा रखता है। अंध श्रद्धालु मात्र संसार का रागी एवं सुख लिप्सु जीव रहता है । येनकेन उपायेन दुःख निवृत्ति हो जाय और सुख की प्राप्ति हो जाये ऐसे निमित्तों को ही वह मानता है । चाहे ये कार्य भगवान के नाम से, देवी-देवताओं के नाम से या त्यागी-तपस्वी गुरुओं के आशीर्वाद से पूर्ण हों। परन्तु उसे देव-गुरु-धर्म की आराधना-भक्ति या उपासना से जितना मतलब नहीं होता है, उससे ज्यादा सुख प्राप्ति का एवं दुःख निवृत्ति का उसका लक्ष्य होता है। शादी होना, संतानोत्पत्ति होना, सम्पत्ति की प्राप्ति होना, ऐश्वर्य भोगविलास के साधनों की प्राप्ति होना, यश, कीर्ति, प्रतिष्ठा, सत्ता आदि की प्राप्ति होना, इन्हीं सब सांसारिक सुखों को सुख प्राप्ति रूप मानकर वह बैठा है । अतः इनकी प्राप्ति के लक्ष्य से वह देव-गुरु-धर्म का भी उपयोग करता है । भगवान के दर्शन-पूजा-पाठ, यात्रा आदि एवं स्त्रोत पाठ, जपादि सम्यग् साधना को भी वह सुख प्राप्ति के लिए करता है। “कौए का बैठना और डाली का गिरना" ऐसे आकस्मिक निमित्त की तरह वह देव-गुरु-धर्म की साधना से चमत्कारिक निमित्तों को मानकर उनमें अंध श्रद्धा रख लेता है । और उनकी उपासना इसी हेतु को सिद्ध करने के लिए करता रहता है । देव-देवियों के पास जाकर सन्तान या सम्पत्ति प्राप्ति हेतु मानता या आखड़ी रखता है। लॉटरी खुल जावे, इसके लिए वह देव-गुरु के आर्शीवाद प्राप्ति हेतु प्रयत्न करता है। चमत्कार करने वालों के पीछे वह अंधश्रद्धा से भागता-फिरता है । वीतराग भगवान और त्यागी तपस्वी गुरुओं को एवं देव-देवियों को वह अपनी १२० कर्म की गति न्यारी
SR No.002481
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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