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________________ नवतत्त्व की प्रस्तुत ३८ वी गाथा में आठों ही कर्मों को विविध प्रकार की उपमाएं देकर समझाया गया है । जैसे हम किसी बात को दृष्टांत तथा उदाहरण से समझते हैं, उसी तरह किस कर्म का कार्य कैसा है, यह उपमाओं के माठ दृष्टांत से समझाया गया है। गाथा में दर्शनावरणीय कर्म की उपमा के लिए "पडिहार" शब्द सूचित किया गया है । “पडिहार" यह प्राकृत शब्द है जिसे संस्कृत में प्रतिहारी कहते हैं । प्रतिहार अर्थात् द्वारपाल । प्रथम कर्मग्रन्थ की 9 वी गाथा में “वित्ति समं दंसणावरणं" यह अन्तिम चरण दर्शनावरणीय कर्म के स्वभाव को समझाने के लिए पूज्य देवेन्द्रसूरि महाराज ने रखा है। यहां प्रयुक्त शब्द "वित्ति" अर्थात् द्वारपाल । अंग्रेजी में जिसे “WATCHMAN'' कहते हैं । “जह एएसिं भावा, कम्माण वि जाण तह भावा।" अर्थात् जैसा इन उपमाओं का भाव દ્વારપાળ જેવું है वैसा आठ कर्मों का भाव अर्थात् स्वभाव है । YORK जैसे एक राजमहल के बाहर द्वारपाल “वित्ति", "प्रतिहारी" खड़ा है। द्वारपाल का कार्य है किसी भी व्यक्ति को राजमहल में जाने से रोकना। ... हर्शनावरका राजा से मिलने के लिए कोई आया हो वह राजा के दर्शन करना चाहता हो, उसकी काफी इच्छा हो फिर भी द्वार पर ही द्वारपाल के रोकने के कारण वह राजा के दर्शन नहीं कर पाता है अर्थात् नहीं मिल पाता है । ठीक उसी तरह दर्शनावरणीयकर्म "दर्शन को रोकने का काम करता है। द्वारपाल के जैसे स्वभाववाला यह दर्शनावरणीयकर्म आत्मा के गुण रूपी महल के सामने खड़ा है, जो आत्मा को जगत के अनंत पदार्थों को देखने नहीं देता है। देखने की शक्ति को दवा देता है, कुण्ठित कर देता है या आत्मा को निद्राग्रस्त करके नींद से सुला देता है, जिससे आत्मा कुछ भी देख न पाए । जैसे राजा द्वारपाल के अधीन हो जाता है, वैसे दर्शनावरणीयकर्म के कारण आत्मा इन्द्रियों के आधीन हो जाती है। निद्रा के अधीन भी कर देता है। निद्रा मे पड़ी हुई आत्मा निश्चेष्ट हो जाती है अर्थात् किसी भी इन्द्रिय से किसी भी विषय को ग्रहण नहीं कर पाती है। भान भूलकर निद्रा में पड़ी रहती है। यह दर्शनावरणीय का कार्य है। १८ कर्म की गति न्यारी
SR No.002480
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherJain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha
Publication Year
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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