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________________ भीतरी आकाश प्रदेश को लोकाकाश कहते हैं। तथा लोक के बाहरी प्रदेश को अलोक या अलोकाकाश कहते हैं । चाहे लोक का आकाश हो या अलोक का आकाश, आकाशस्वरूप से दोनों समान ही है। दोनों विभाग में प्रसृत आकाश द्रव्य एक ही है । आकाश एक अखंड अविभाजित द्रव्य है। सिर्फ लोक-अलोक की उपाधि के कारण औपाधिक नाम लोकाकाश और अलोकाकाश पड़ा है। उदाहरणार्थ घटाकाश, मठाकाश यदि कहते हैं-अर्थात् एक घड़े का भीतरी आकाश, एक मठ हो उसके अन्दर का आकाश । यह आकाश का उपाधि जनित नाम है। इससे अखण्ड आकाश के टुकड़े नहीं होते हैं । जैसे भारतीय आकाश, पाकिस्तानी आकाश । ये नाम जो रखे गए है क्षेत्र के आकाश के आधार पर है। परन्तु आकाश खडिन नहीं होता है। उसी तरह लोकाकाश और अलोकाकाश भी एक अखंड आकाश के दो औपाधिक नाम मात्र है । परन्तु लोक और अलोक दोनों का आकाश एक अखण्ड आकाश लोकाकाश का ही संक्षिप्त नाम लोक कहते हैं । यही १४ रज्जु प्रमाण होने से १४ राजलोक कहते हैं । इस लोकाकाश में तीन लोक हैं। जैसा कि. १४ राजलोक का नक्शा पृष्ठ पर दिया गया है । तीन लोक में- (१) उर्ध्व लोक -जिसे देव लोक-स्वर्ग भी कहते हैं । (२) तिर्छालोक-तिर्यक् लोक और मृत्यु लोक या मनुष्य लोक भी कहते हैं । और तीसरा है अधो लोक । जिसे पाताल या नरक-लोक भी कहते हैं। इन्हीं तीनों लोकों में जीव राशि रहती है । अतः उनके नाम के आधार पर भी लोक का नाम पड़ा है । जैसे ऊपर स्वर्ग के देवी-देवता रहते हैं इसलिए देवलोक नाम रखा। मनुष्यों के रहने के कारण मनुष्य लोक नाम रखा । तिर्छा के कारण तिर्यक् लोक नाम भी प्रचलित है । नीचे अधो लोक में नरक के. नारकी जीव रहते हैं अतः नरक भी कहा । इस तरह तीन लोक हैं । तीनों का सम्मिलित पूरा नाम १४ राजलोक है। समस्त जीव सृष्टि इसी १४ राजलोक में रहती है । इसके बाहर एक सूक्ष्म जीव भी नहीं है । इसी तरह अजीव द्रव्य भी इसी १४ राजलोक में है । इसके बाहर अर्थात् लोक के बाहर अजीव द्रव्य का एक परमाणु भी नहीं जो भी कुछ है वह सब कुछ इस लोक में ही अलोक में कुछ भी नहीं है । सिर्फ आकाश। दो दव्य और पंचास्तिकाय इस तरह लोक और अलोक दोनों में मिलाकर यदि द्रव्यों का विचार किया जाय तो सिर्फ दो ही द्रव्य मूलभूत द्रव्य है। दो के अलावा इस अनन्त ब्रह्माण्ड में कर्म की गति न्यारी ११९
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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