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________________ कालवाद कालः पचति भूतानि कालः संहरति प्रजाः । कालः सुप्तेषु जागति कालो ही दूरतिक्रमः ।। सिर्फ काल को मानकर चलने वाले एकान्त कालवादीयों का कहना है किकाल ही उत्पन्न पदार्थों का पाक करता है। काल पृथ्वी-पानी-अग्नि-वायु आदि भूतों को पकाता है । काल ही प्रजा का संहार करता है। काल ही सोये हुए को जगाता है । सृष्टि निर्माण भी काल ही करता है। योग्य काल में ही गर्भ परिपक्व होता है । गर्भ निर्माण में भी काल कारण है । मुंग की दाल सिगड़ी पर रखने मात्र से ही नहीं पकती अपितु योग्य काल अपेक्षित है। इस तरह सृष्टि-स्थिति और प्रलय आदि की कारणता काल में ही है । अतः काल का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता । यह कालवादियों का पक्ष है । अथर्ववेद कालसूक्त में कहा है कि-"काल ने पृथ्वी को उत्पन्न किया, काल के आधार पर सूर्य तपता है, काल के आधार पर ही समस्त भूत रहते हैं, काल के कारण ही आंखे देखती है, काल ही ईश्वर है, वह प्रजापति का भी पिता है । इत्यादि कहा है। (अथर्ववेद-१९५३-५४) अतः सृष्टि का मुख्य कारण ईश्वर के स्थान पर काल को मानने का सिद्धान्त रखा है। महाभारत में भी समस्त जीव-सृष्टि के सुख-दुःख एवं जन्म-मरणादि सब का आधार काल को ही विश्व की विचित्रतादि का कारण माना गया है। यहां तक कह दिया है कि कर्म, यज्ञ-यागादि अथवा किसी के भी द्वारा किसी को सुख-दुःख नहीं मिलता सिर्फ काल द्वारा ही प्राप्त होता है । समस्त कार्यों में काल ही कारण रूप है । यह कालवादी पक्ष है। , लेकिन एकान्त काल को ही समस्त कार्यों का कारण मानना भी उचित नहीं है । युक्ति संगत सिद्ध नहीं होंगा। चूंकि काल जड़ तत्त्व है । अजीव पदार्थ है। अस्तिकाय रूप भी नहीं है । दूसरी तरफ एक काल में एक पदार्थ की उत्पत्ति मानोगे उसी समय आपको समस्त पदार्थों की उत्पत्ति मान लेनी पड़ेगी। क्योंकि काल जो एक में है वही सभी में सम्मिहित है । काल को आकाश की तरह सर्वत्र सर्व व्यापी मानना पड़ेगा । सभी जीवों की उत्पत्ति आदि सभी एक साथ ही माननी पड़ेगी। चुकि काल का आधार तो सबको मिला है। दूसरी तरफ सब कुछ काल से ही होता तो गर्भ के लिए माता-पिता के शुक्र-शोणित आदि की आवश्यकता भी नहीं पड़ती और काल से ही सभी जीवादि सृष्टि उत्पन्न हो जाती। परन्तु ऐसा नहीं देखा जाता। गर्भ के मूल कारण रूप में माता-पिता को स्वीकारना पड़ता है । हां काल १०२ कर्म की गति न्यारी
SR No.002478
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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