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________________ एक नहीं अनेक गुण है । परन्तु हमारे में एक नहीं अनेक दुर्गुण भरे पड़े हैं। अतः दोषों को निकालने के लिए निर्दोष का सहारा लेना, दोष रहित ऊंचे आदर्श का आलंबन लेना अनिवार्य है। साध्य है निर्दोषता। परन्तु साधना के केन्द्र में निर्दोष आलंबन किसी का लेना पड़ेगा । वह कौन और कैसा हो सकता है ? क्या हमारे जैसा ही दूसरा कोई भी हमारा आलंबन बन सकता है ? नहीं निर्दोषता के साध्य की साधना में सदोषी को आलंबन बनाने में साधना का परिणाम विपरित आएगा। रागी को आलंबन बनाकर की जाने वाली साधना हमें वीतरागीनहीं बनाएगी। रागी तो हम है ही अतः वीतरागता प्राप्त करने का साध्य बनाएं। वीतरागता की साधना के लिए वीतराग का ही आदर्श ऊंचा आलंबन समझा जाएगा। अतः जो सर्वज्ञ हों, निर्दोषदोष रहित हों, पूर्ण तत्त्व हो, वीतराग हो ऐसे अनेक गुणों से परिपूर्ण-तत्त्व चाहे ईश्वर नाम वाच्य हो वही हमारी उपासना का केन्द्र हो सकता है। उपासना के तरीके भिन्न हो सकते हैं, परन्तु उपास्य का स्वरूप भिन्न भिन्न कर देंगे तो साधना का फल भी चित्र-विचित्र हो जाएगा । साधक साधना के जरिए साध्य को प्राप्त नहीं कर पाएगा तो उसकी साधना व्यर्थ चली जाएगी। गुणोपासना का आधार - 'ईश्वर' . गुणप्राप्ति निर्गुणी की साधना का साध्य है। अतः सर्वगुण सम्पन्न तत्त्व ईश्वर परमात्म स्वरूप, परम शुद्ध स्वरूप, परमपुरुष-पुरुषोत्तम, सर्वोच्च स्वरूप हमारा सहायक उच्च आदर्शभूत आलंबन है। आलंबन लिए बिना निःसहाय चल नहीं सकता । बालक को चलाने में हमें अंगुली पकड़कर चलाने का साथ देना पड़ता है। अज्ञानी साधक आज बाल्यावस्था में है। अतः बिना आलंबन के हम आगे बढ़ें यह नामुमकीन है। उसी तरह आलंबन यदि उंचे आदर्श का लिया ही है तो उसे पुरा मान-सन्मान देना यह साधक का कर्तव्य होता है। पूज्य-पूजनीय के प्रति पूजा यह उनकी पूजनीयता का सम्मान है । अपमान पूजा भाव को गिराएगा। विकास पथ की साधना में यह सहायक नहीं बाधक बनेगा। अतः पूजनीय के प्रति पूज्यभाव को व्यक्त करने वाली पूजा पद्धति उपासना का प्रकार है । तरीका है । पूज्य पूजनीय क्यों है? क्योंकि पूजा करने योग्य उनका ऊंचा स्थान है। गुणों के भंडार है । सर्वदोष रहित है। सर्वगुण सम्पन्न है। साधक निर्गुणी है। दोषग्रस्त है। साध्य जब सर्वगुण सम्पन्न हो और साधक सर्वदोष संपन्न हो तो ही पूजा की उपयोगीता सिद्ध होगी। पूज्य की पूजा करना अंतस्थ सद्भावों को, सन्मान को व्यक्त करने का एक प्रकार है। सही तरीका है। वही भक्ति है। भक्ति भगवान से जुड़ी हई है। जिसका कर्ता भक्त स्वयं है। भक्ति में वह शक्ति है जो भगवान की भगवतता को खिंचकर लाने का चुंबकीय कार्य करती है। अतः भक्ति यह भक्त और भगवान के बीच की कड़ी है। जैसे पति कर्म की गति नयारी (५२)
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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