SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विविधता एवं विषमता भरी पड़ी है। जबकि इनका कर्ता ईश्वर किसी भी रुप में सिद्ध हो ही नहीं सकता, तो फिर जीव ही कर्ता के रूप में सिद्ध होगा; और उस जीव कर्ता की क्रिया के रूप में कर्म सिद्ध होगा। अतः समस्त संसार की सारी विचित्रताओं, विषमताओं आदि का एकमात्र कारण कर्म ही सिद्ध होगा। अतः ये कर्मजन्य विचित्रता, विषमता आदि है। अब कर्म सत्ता को ही नहीं मानेंगे तो पुनः विसंगति आएगी। जबकि विचित्रता आदि तो संसार में प्रत्यक्ष दिखाई देती है। इनका तो कोई निषेध नहीं कर सकता, चूंकि सभी जीवों की आंखों के सामने समस्त संसार की विचित्रताएं, विषमताएं आदि स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। ये तो संसार में भरी पड़ी हैं । अतः इनके पीछे कर्म की कारणता अवश्य स्वीकारनी पड़ेगी। जैसे हम धंए को देखकर अग्नि का निर्णय करते हैं। चूंकि यह निश्चित है कि जहां-जहां भी धुंआं रहता है वहां अग्नि निश्चित रूप से अवश्य ही रहती है। धुंए का अग्नि के साथ अविनाभाव संबंध है । धुंआं अग्नि के बिना उत्पन्न ही नहीं होता है अतः उसके बिना रह भी नहीं सकता। हम मकान के ऊपर से या दूर से धुंआं देखते हैं। धूआं पहले दिखाई देता है। जबकि अग्नि दिखाई नहीं भी देती। परन्तु धुंए को प्रत्यक्ष देखकर आग लगी है यह अनुमान लगाते है यह ज्ञान भी सही है। चूंकि कार्य कारणभाव सही है अतः ज्ञान भी सही है । . ठीक इसी तरह संसार की विचित्रता, विषमता, विविधता को देखकर कम अनुमान ज्ञान सही ठरहता है। चूंकि विचित्रता आदि का कर्म के साथ अविनाभाव-संबंध है, कार्य कारणभाव का संबंध है, विचित्रता आदि का कार्य है। कार्य कभी कारण के बिना हो नहीं सकता । अतः विचित्रता आदि कार्य के पीछे कर्म की कारणता अनिवार्य है। ईश्वरादि की कारणता सिद्ध हो नहीं सकती। कर्म की कारणता कसौटी पर खरी उतरती है। अतः कर्म ही समस्त संसार की विचित्रता आदि का एकमात्र कारण सिद्ध होता है। अनुमान से कर्म सिद्धि : निश्चित युक्ति संगत अनुमान भी ज्ञान की प्रक्रिया है। श्रुतज्ञान का साधन है। अतः अनुमान यदि अकाट्य और सही है तो ज्ञान की धारा भी निश्चित सही है। अनुमान का भी मूल आधार प्रत्यक्ष होता ही है । जैसे अग्नि के अनुमान ज्ञान में धूएं का प्रत्यक्ष होता है। धुंआ तथा अग्नि की अन्वय व्याप्ति होती है। व्याप्ति सम्बन्ध से निश्चित ज्ञान होता है। अतः धूम्र को देखकर अग्नि की सिद्धि करते हैं। उसी तरह संसार में सुख-दुःख सामने दिखाई दे रहे हैं । सुख दुःख तो गुण स्वरूप है, अतः गुण दिखाई नहीं देते हैं। गुण किसी द्रव्य के आधार पर ही रहते हैं । गुण-गुणी का अभेद कर्म की गति नयारी -(१०२
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy