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________________ । सृष्टि निर्माण भी काल ही करता है । योग्य काल में ही गर्भ परिपक्व होता है । गर्भ निर्माण में भी काल कारण है । मुंग की दाल सिगड़ी पर रखने मात्र से ही नहीं पकती अपितु योग्य काल अपेक्षित है । इस तरह सृष्टि-स्थिति और प्रलय आदि की कारणता काल में ही है । अतः काल का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता । यह कालवादियों का पक्ष है । अथर्ववेद कालसूक्त में कहा है कि- 'काल ने पृथ्वी को उत्पन्न किया, काल के आधार पर सूर्य तपता है, काल के आधार पर ही समस्त भूत रहते हैं, काल के कारण ही आंखे देखती है, काल ही ईश्वर है, वह प्रजापति का भी पिता है । इत्यादि कहा है। (अथर्ववेद १९५३-५४) अतः सृष्टि का मुख्य कारण ईश्वर के स्थान पर काल को मानने का सिद्धान्त रखा है। महाभारत में भी समस्त जीव-सृष्टि के सुख-दुःख एवं जन्म-मरणादि सब का आधार कर्म को कारण माना गया है । यहां तक कह दिया है कि कर्म, यज्ञ-यागादि अथवा किसी के भी द्वारा किसी को सुख-दुःख नहीं मिलता सिर्फ काल द्वारा ही प्राप्त होता है । समस्त कार्यों में काल ही कारण रूप है । यह कालवादी पक्ष है । लेकिन एकान्त काल को ही समस्त कार्यों का कारण मानना भी उचित नहीं है । युक्ति संगत सिद्ध नहीं होगा। चूंकि काल जड़ तत्त्व है। अजीव पदार्थ है। अस्तिकाय रूप भी नहीं है। दूसरी तरफ एक काल में एक पदार्थ की उत्पत्ति मानोगे, उसी समय आपको समस्त पदार्थों की उत्पत्ति मान लेनी पड़ेगी। क्योंकि काल जो एक में है वही सभी में सम्मिहित है। काल को आकाश की तरह सर्वत्र सर्व व्यापी मानना पड़ेगा। सभी जीवों की उत्पत्ति आदि सभी एक साथ ही माननी पड़ेगी। चूंकि काल का आधार तो सबको मिला है। दूसरी तरफ सब कुछ काल से ही होता तो गर्भ के लिए माता-पिता के शुक्र-शोणित आदि की आवश्यकता भी नहीं पड़ती और काल से ही सभी जीवादि सृष्टि उत्पन्न हो जाती । परन्तु ऐसा नहीं देखा जाता । गर्भ के मूल कारण रूप में माता-पिता को स्वीकारना पड़ता है। हां, काल गर्भ की परिपक्वता में सहायक-अपेक्षित कारण जरूर है। अतः कालवादी का एकान्त काल पक्ष सुसंगत नहीं ठहरता । काल सभी कार्यों का असाधारण नियतपूर्ववर्ति कारण नहीं ठहरता। फिर तो कुम्हार मिट्टी-पानी-चक्र-दण्ड से घड़ा क्यों बनाता है ? काल से ही घड़ा बनाना चाहिए । लेकिन नहीं यह भी प्रत्यक्ष विरुद्ध है । अतः काल को उपयोगी-सहयोगी कारण जरूर मान सकते हैं परन्तु जनक कारण नहीं मान सकते। स्वभाववाद : न स्वभावातिरेकेण, गर्भ-बाल शुभादिकम् । यत्विञ्चिज्जायते लोके, तदसौ कारणं किल ।। सर्वे भावाः स्वभावेन, स्व-स्वभावे तथा तथा। कर्म की गति नयारी
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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